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अफगानिस्तान में रिपोर्टिंग करनी है, सर पर कफ़न बांध कर जाएं

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पुष्परंजन, दिल्‍ली:

विगत 20 वर्षों में अफ़ग़ान मीडिया कैसे बहुराष्ट्रीय हुआ, उसे देखना ज़रूरी है। यह सही है कि इस इलाक़े से रिपोर्टिंग सर पे कफ़न बांधकर ही की जा सकती है, मगर जिस तरह टीवी चैनलों, रेडियो प्रसारण की बाढ़ इस मुल्क में आई, वह कुछ और कहानी बयाँ करती है। मुुश्किल हालात में जर्नलिजम करना हो, तो अफगानिस्तान चले जाइए। अब पेरिस स्थित रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर और अमरीका की कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट (सीपीजे) जैसे विश्‍व मीडिया संगठनों के लिए जेरे बहस है कि तालिबान-पार्ट टू में पत्रकारिता कैसे करनी होगी? ‘सीपीजे’ के पास फौरी मदद के वास्ते अफगानिस्तान से पांच हजार से अधिक मैसेज पहुंचे हुए हैं। काबुल यूनिवर्सिटी इलाके में देपुरी स्क्वायर है, वहां खुले काबुल प्रेस क्लब में पिछले कुछ हफ्तों से लोगों का उठना-बैठना लगभग बंद है। 700 से अधिक देसी-विदेशी पत्रकार काबुल प्रेस क्लब (केपीसी) के सदस्य थे। वो घटकर कितने हो गए, कुछ दिनों में स्पष्ट हो जाएगा। ये सभी पत्रकार देश छोड़कर गए, तो क्या काबुल प्रेस क्लब में सन्नाटा पसर जाएगा? 2019 के आखिर में 203 टीवी कंपनियां अफगानिस्तान में रजिस्टर्ड थीं। इनमें से 96 टीवी स्टेशन केवल काबुल में थे, शेष चैनलों का प्रसारण 107 प्रांतीय टीवी केंद्रों से हो रहे थे। सरकारी टीवी में आरटीए टीवी, संसदीय कार्यवाही को दिखाने वाला ‘मेशरानो जरगा टीवी’ के दर्शक वैसे ही हैं, जैसे कि भारत में। प्राइवेट में टोलो न्यूज, एआआईए टीवी, बॉलीवुड व अमरीकी फिल्में दिखाने वाला ‘24’, पश्तो में प्रसारण वाला 'लेमार टीवी', शमशाद टीवी, शैक नेटवर्क का 'शर्क टीवी', दारी में प्रसारण करने वाला ‘ओकाब टीवी’, 1915 में पहला डिजिटल कार्यक्रम प्रस्तुत करने वाला अनार टीवी, हदीस टीवी, टेन टीवी, एलेवन टीवी, मशाल टीवी, 2017 में महिलाओं के बीच पॉपुलर 'बानो टीवी' प्रमुख चैनलों में से हैं। 

 

अल जजीरा का विस्तार लगभग कोने-कोने तक

इनसे अलहदा, देश से बाहर की कंपनी अल जजीरा का विस्तार लगभग कोने-कोने तक हो चुका था। इस प्रतिस्पर्धा में सीएनएन, बीबीसी, स्काई न्यूज, डीडी न्यूज भी अफगानिस्तान में थे, जिनके कार्यक्रम देखने वालों की संख्या लाखों में मानकर चलिए। मीडिया में इतने बड़े बदलाव का सेहरा पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई के सिर बांध सकते हैं। 2002 के बाद वो गाहे-बगाहे बोलते थे, ‘मीडिया को उदार बनाने की जरूरत इसलिए है, ताकि लोकतंत्र का प्रमुख  स्तंभ मजबूत हो।’ इस वास्ते अमरीका और यूरोपीय देशों का पूरा समर्थन हामिद करजई को हासिल था। लाइसेंसिंग को इतना उदार किया गया कि 2010 आते-आते 75 टीवी स्टेशन और 175 एफएम रेडियो स्टेशन अफगानिस्तान में खुल चुके थे। इनमें से 34 रेडियो-टीवी स्टेशनों पर सरकार का नियंत्रण था। काबुल के बाद हेरात और जलालाबाद ऐसे सेंटर थे, जहां मीडिया की गतिविधियां तेजी से बढ़ीं। 2011 में एशिया फाउंडेशन ने एक सर्वे किया, जिसका निष्कर्ष था कि सुदूर इलाकों की 45 फीसद अफगान आबादी को परंपरागत रूप से रेडियो सुनना पसंद है, और इनमें से 28 प्रतिशत को टीवी कार्यक्रमों को देखना अच्छा लगता है। इसके बरक्स शहरी इलाके के 68 फीसद लोगों को टेलीविजन रास आने लगा था। पश्‍चिम वाले ऐसा सर्वे इसलिए करा रहे थे, ताकि अफगान जनता की नब्ज को टटोला जा सके। शहरी अफगान समाज का एक बड़ा हिस्सा तेजी से आधुनिकीकरण की ओर अग्रसर हो रहा था, बेशक उसमें मीडिया की बड़ी भूमिका थी।

 

 

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आरियाना टीवी की 'टोलो न्यूज' से प्रतिस्पर्धा

मगर, बात सिर्फ लोकतंत्र और 'चौथे स्तंभ' को मजबूत करने तक सीमित नहीं थी। इसमें बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मालिक और विदेशी हुक्मरान अपना हित तलाशने लगे थे। 2002 से पहले अफगान वायरलेस कम्युनिकेशन कंपनी (एडब्ल्यूसीसी) और एक दूसरी कंपनी 'रौशन' का मीडिया अधोसंरचना के क्षेत्र में एकाधिकार था। इसमें अफ्रीका व मिडिल ईस्ट में ऑपरेट करने वाली कंपनी ‘एमटीएन’ ने सेंध लगाना शुरू किया। 2006 आते-आते यूएई से ऑपरेट करनेवाली कंपनी ‘एमटीएन’ और ‘इतिसलात’ ने इंटरनेट से लेकर टीवी प्रसारण के कारोबार में अपना कब्जा जमा लिया। प्राइवेट चैनलों में आरियाना टीवी ने भी सुदूर इलाकों में 19 फीसद मार्केट शेयर हासिल कर दूसरे नंबर पर अपना पोजिशन बना लिया है। दारी, पश्तो, उजबेक और अंग्रेजी में प्रसारण के बूते आरियाना टीवी की 'टोलो न्यूज' से प्रतिस्पर्धा बनी रहती है। अफगान-अमरीकी मूल के एहसान बयात ने 2005 में आरियाना चैनल का आरंभ काबुल से किया था। एक और है ‘शमशाद टीवी’, जिसके मालिक हाजी फजल करीम फजल 2006 में खनन के धंधे से टीवी इंडस्ट्री में आए। वो दावा करते हैं, ‘शमशाद टीवी पश्तूनों की आवाज है।’

 

यों, अफगानिस्तान में टोलो न्यूज की तरक्की का सेंसेक्स देखकर हैरानी होती है। टोलो न्यूज दुबई में स्थापित मोबी ग्रुप द्वारा संचालित है। मोबी ग्रुप का 'एरिया ऑफ ऑपरेशन' अफ्रीका, मिडिल ईस्ट और साउथ-सेंट्रल एशिया है। 30 करोड़ लोगों को स्पोर्ट्स, म्यूजिक, इंटरटेनमेंट, पब्लिशिंग, रिसर्च, डिजिटल ऑन लाइन, स्ट्रेटेजिक कम्युनिकेशंस जैसी सेवाएं देने वाले मोबी ग्रुप का अफगानिस्तान में मार्केट शेयर 45 फीसद है। इसी ग्रुप द्वारा लांच  'टोलो न्यूज' ने 2010 में 24 घंटे का कार्यक्रम दारी, और पश्तो में देना शुरू किया था। सात कर्मचारियों से 1700 की संख्या बढ़ा लेने वाला टोलो न्यूज चाहता है कि अफगानिस्तान का नया निजाम उनके मीडिया बिजनेस को यथावत चलने दे। इसके मालिकाना हक़ वाले मोबी ग्रुप के चेयरमैन साद मोहसनी ऑस्ट्रेलियाई-अफगान मूल के हैं, जिन्होंने ईरान में रूपर्ट मर्डोक के साथ मिलकर सेटेलाइट चैनल शुरू किया है। दुबई में रहने वाले साद मोहसनी अफगानिस्तान के नए 'मीडिया मुगल' हैं।

अफगान मीडिया को पांच अलग-अलग हिस्सों में करके देखें, तो स्थिति और साफ-साफ समझी जा सकती है। पहला है, मेनस्ट्रीम कमर्शियल मीडिया, जिसमें टीवी इंडस्ट्री फलने-फुलने लगी है। दूसरा है लोकल एफएफ रेडियो, जिसे विदेशों से फंड मिलता रहा है। तीसरा है, विभिन्न कबीलाई , धार्मिक समूहों तथा राजनीतिक विचारधाराओं को आगे बढ़ाने वाला मीडिया। चौथा है, तालिबान मीडिया। और पांचवां, पूर्ण रूप से सरकारी नियंत्रण वाला मीडिया, जिसमें रेडियो और टीवी दोनों आते हैं। अब तो निजाम बदल चुका, मगर माजी में सक्रिय रहे एक और मीडिया की चर्चा मैं महत्वपूर्ण समझता हूं। इंटरनेशनल सिक्योरिटी असिस्टेंट फोर्स (आईएसएएफ) जिसका काम पिछले 20 वर्षों से सुरक्षा देना था, उसने भी अफगानिस्तान से पाक्षिक अखबार ‘सदा-ए-आजादी’ निकालना शुरू किया था। इस अखबार की पांच लाख प्रतियां पूरे देश में मुफ्त में बांटी जाती रहीं। देश की केवल 13 फीसद आबादी अखबार पढ़ पाने की हालत में थी, उनमें बहुतेरे लोग मुफ्त में हाथ आये अखबार के वास्ते लालायित रहते थे. 'आईएसएएफ' ने इस मुफ्तिया अखबार के जरिए यह लगातार बताना चाहा था कि अफगानिस्तान को संवारने और सभ्य बनाने में यूरोप, अमरीका और उसकी बहुराष्ट्रीय सेना का बड़ा हाथ रहा है।

 

 

1925 में अफगानिस्तान में रेडियो प्रसारण शुरू

1925 में अफगानिस्तान में रेडियो प्रसारण शुरू हुआ था. और काबुल से पहला टीवी प्रसारण 1978 में हुआ था। रेडियो सबसे पसंदीदा माध्यम अफगानों के लिए बना. यह इसका प्रमाण है कि 2019 में 284 रेडियो स्टेशन अपना प्रोग्राम देने लगे थे। इनमें पोडकास्ट, एएम, एफएम, शार्टवेव जैसे प्रसारण शामिल रहे हैं। 1996 में पहली बार इंटरनेट का इस्तेमाल तालिबान ने किया था, यह भी दिलचस्प है कि जी इन्हें ठीक से नहीं जानते आदिम और क़बीलाई भर समझते हैं। 2003 में बमुश्किल सौ इंटरनेट कनेक्शन अफगानिस्तान में थे। 2015 में 20 लाख 69 हजार इंटरनेट यूर्जर्स अफगानिस्तान में हो चुके थे। आज की तारीख में इंटरनेट यूजर्स की संख्या 90 करोड़ को पार कर चुकी है। यह आंकड़ा अफगान संचार मंत्रालय का है। अफगानिस्तान के अमीर शेर अली खान के समय 1873 में पहला अखबार ‘शम्स ए-नाहर’ निकला था। 11 जनवरी 1906 को पर्शियन भाषा का पहला ‘शिराजुल अखबार’ प्रकाशित हुआ। अफगानिस्तान के संचार मंत्रालय ने 2019 तक की जानकारी दी थी कि 1500 अखबार, पत्र-पत्रिकाओं का रजिस्ट्रेशन हो चुका है। इनमें अनीस, अरमान ए मिल्ली दोनों सरकारी अखबार हैं। निजी मालिकाना हक वाले, 'द डेली आउटलुक अफगानिस्तान', दारी और पश्तो में प्रकाशित ‘द डेली अफगानिस्तान’, 2003 में महिला पत्रकार कथरीन विदा द्वारा प्रकाशित ‘चराग’, कुछ अन्य पत्र-पत्रिकाएं इसिया, खामा प्रेस, इरादे, हवद, इत्तेफाके इस्लाम और शरीयत साक्षर अफगानों की पहली पसंद हैं।

 

दो दशको में 85 लोकल पत्रकारों की हत्‍या

एक और प्रश्‍न पत्रकारों की सुरक्षा का है। रिपोटर्स विदाउट बॉर्डर ने पिछले दो दशकों में अफगानिस्तान के 85 लोकल पत्रकारों के मारे जाने की जानकारी दी है। अब सवाल यह है कि अफगानिस्तान में आगे की रिपोर्टिंग खौफ के साए में होगी, या फिर अखुन्जादा सरकार उसका कोई फार्मेट तय करेगी? तालिबान पार्ट-वन शासन के समय कोई नियमित प्रेस कांफ्रेंस नहीं होता था। इनकी जब सत्ता 2001 दिसंबर में गई, उसके बाद भी मीडिया कवरेज से इनका कोई मतलब नहीं होता था। तालिबान प्रवक्ता को ढूंढ़ कर 'बाइट' भर ले लेना किसी मीडिया संस्थान के लिए बड़ी उपलब्धि मानी जाती थी। इनमें से एक तालिबान प्रवक्ता अब्दुल लतीफ हकीमी से कॉन्टेक्ट डेवलप करने में मुझे कई हफ्ते लगे थे। 28 सितंबर 2005 को जर्मनी से मैंने उसका इंटरव्यू किया, जिसका प्रसारण डाचयेवेले की सभी 30 भाषाओं में किया गया। तालिबान प्रवक्ता के उस इंटरव्यू के तुरंत बाद उसके सेटेलाइट फोन से दोबारा संपर्क नहीं हो सका। इस घटना के पांचवें दिन 2 अक्टूबर 2005 को अब्दुल लतीफ हकीमी दक्षिण-पश्‍चिम बलूचिस्तान के डेरा इस्माइल खान के पास पकड़ा गया. उसके पास से सेटेलाइट फोन, दो मोबाइल फोन और भारी संख्या में असलहे बरामद किए गए।

 

ओसामा बिन लादेन और मुल्ला उमर का करीबी रह चुके अब्दुल लतीफ हकीमी उस दौर के मोस्ट वांटेड आतंकियों में से एक था। जून 2005 में कुनार प्रांत में एमएच-7 हेलिकॉप्टर को मार गिराने के मामले में उसका नाम आया था, जिसमें 16 अमरीकी सैनिक मारे गए थे। अब्दुल लतीफ हकीमी जेल से छूटा भी तो इतालवी मीडियाकर्मी दानियल मास्त्रोदिकोमो के अपहरण के बाद। 18 मार्च 2007 को इतालवी को इतालवी पत्रकार मास्त्रोदिकोमो की फिरौती के बदले अब्दुल लतीफ हकीमी समेत चार तालिबान अतिवादियों को छोड़ा गया। ये जेल से छूटे और 8 अप्रैल 2007 को मीडियाकर्मी दानियल मास्त्रोदिकोमो के दुभाषिए अजमल नक्शबंदी की गला काट कर हत्या कर दी। उस घटना का जिक्र मैं इसलिए जरूरी समझता हूं, ताकि तालिबान प्रवक्ता और भारतीय टीवी पर नुमायां राजनीतिक पार्टियों के प्रवक्ता के बीच के फर्क को समझा जा सके। आमतौर पर तालिबान प्रवक्ता अपनी तस्वीर तक शेयर नहीं करते थे। तालिबान प्रवक्ता अब्दुल लतीफ हकीमी का जब मैंने इंटरव्यू किया, मुझे उसके अक्स का अंदाजा नहीं था। ऐसा पहली बार हुआ, जब 17 अगस्त 2021 को तालिबान प्रवक्ता जबीउल्लाह मुजाहिद ऑन कैमरा मीडिया से मुखातिब हुए। तालिबान नए जमाने के मीडिया के साथ अपने परंपरागत रुख को बदलेंगे, और दुनिया की अन्य लोकतांत्रिक सरकारों की तरह रोजाना प्रेस ब्रीफिंग करेंगे, ऐसी उम्मीद बंध गई है। मगर, सबसे बड़ा सवाल है अफगानिस्तान में बहुराष्ट्रीय मीडिया कंपनियों के बिजनेस का। क्या यह पहले की तरह फलेगा-फुलेगा?

 

(कई देशी-विदेशी मीडिया  हाउस में काम कर चुके लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं। संंप्रति ईयू-एशिया न्यूज के नई दिल्ली संपादक)

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