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भूले-बिसरे: जानिये इस असली गब्बर सिंह का आखिर कैसे हुआ था काम तमाम

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डाॅ. परिवेश मिश्रा, सारंगढ़:  

अच्छी सरकारी नौकरी पाने के लिए युवा का होनहार, काबिल और दूसरे उम्मीदवारों से बेहतर होना हर बार पर्याप्त नहीं होता। नियुक्ति पत्र जारी होने से पहले अंतिम बाधा होती है पुलिस के द्वारा जमा की गयी चरित्र, चाल चलन या पृष्ठभूमि की रिपोर्ट। कम से कम दो अवसरों पर तब के मुख्यमंत्रियों ने व्यक्तिगत हस्तक्षेप कर दो काबिल अफसरों के करियर को पुलिस रिपोर्ट की बलि चढ़ने से बचाया था। भारत को आज़ादी मिले दो वर्ष हुए थे जब रायगढ़ (छत्तीसगढ) के नटवर स्कूल से निकल कर राजेंद्र प्रसाद (आर.पी.) मोदी नागपुर के माॅरिस काॅलेज में पढ़ने पहुंचे। उन दिनों देश की सत्ता उन नेताओं के हाथों में थी जो आने वाली पीढ़ी को देश की बागडोर संभालने के लिए तैयार करना तथा उनमें से प्रतिभावानों को शिक्षित और प्रोत्साहित करना अपना परम कर्तव्य समझते थे। पचास के दशक के फिल्मी गानों में "हम लाये हैं तूफ़ान से कश्ती निकाल" से लेकर "इन्साफ की डगर पे....ये देश है तुम्हारा नेता तुम्ही हो कल के" जैसे गाने सबके दिलो-दिमाग पर छाये थे। नये भारत के निर्माण में नयी पीढ़ी के योगदान का जज़्बा उफ़ान पर था। 

पण्डित नेहरू और शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने शिक्षा के साथ साथ युवकों के गैर-शैक्षणिक विकास पर भी बहुत ध्यान दिया था। विभिन्न विधाओं और कला मे प्रतिभावान विद्यार्थियों के लिए "यूथ फेस्टिवल" के नाम से राष्ट्रीय स्तर के सालाना जलसे आयोजित होने लगे थे। 1960 की फिल्म "नयी उमर की नयी फसल" इसी थीम पर निर्मित थी (कवि गीतकार गोपालदास नीरज के मशहूर "और हम खड़े खड़े गुबार देखते रहे" गीत वाली फिल्म)। कालेजों और विश्वविद्यालयों में एन.सी.सी. पर बहुत जोर दिया गया था और युवकों में इसका बहुत क्रेज़ था। वर्ष 1950 की 26 जनवरी के दिन दिल्ली के राजपथ पर पहली बार परेड शुरू हुई। देश में उसका भी ज़बर्दस्त क्रेज़ बन गया था। इस परेड में देश भर के एन.सी.सी. कैडेट्स में से छंटे हुए युवकों की टुकड़ी परेड का बड़ा आकर्षण होती थी। परेड में सर्वश्रेष्ठ चुने गये कैडेट से पण्डित जवाहरलाल नेहरू भेंट करते और अपने हाथों से उसे पुरस्कृत करते थे।ऐसी ही एक परेड में युवा राजेंद्र प्रसाद मोदी को देश का सर्वश्रेष्ठ एन.सी.सी. कैडेट चुना गया था। पण्डित नेहरू ने उन्हे चाय पर निमंत्रित कर ट्राॅफी प्रदान की थी। 

उन दिनों देश के चयनित प्रतिभावान युवकों में नेतृत्व के गुण विकसित करने के इरादे से उन्हे समय समय पर दुनिया के विभिन्न देशों की यात्राओं पर भी भेजा जाता था। ऐसे ही एक पांच सदस्यीय युवा भारतीय शिष्टमंडल को श्री मोदी के नेतृत्व में ब्रिटेन भेजा गया। ब्रिटेन की क्वीन ऐलिज़ाबेथ के अलावा प्रधानमंत्री समेत बड़े नेताओं के साथ इनकी मुलाकातें हुईं। राजेन्द्र प्रसाद मोदी पढ़ाई लिखायी में भी होशियार थे।  सो किसी को आश्चर्य नहीं हुआ जब सिविल सर्विसेज़ के इम्तिहान में ये आई.पी.एस. के लिए चयनित हो गये। लेकिन इसके बाद रोल शुरू हुआ पुलिस का। 

 

गांधी जी की हत्या के बाद 4 फरवरी 1948 को सरदार पटेल ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को बैन कर दिया था। संघ के नेता या तो जेल में डाले गये थे, या भूमिगत/फ़रार हो गये थे। नागपुर एपीसेन्टर (केन्द्र बिन्दु) था। हालांकि बाद में बैन हटा पर इस बीच अनेकों ने इससे दूरी बना ली थी। देश के आम जनमानस में आर.एस.एस. की छवि एक विलेन जैसी थी। इस संगठन की सामाजिक स्वीकार्यता जितने नीचे तब थी, उतनी कभी नहीं रही। श्री मोदी के बारे में माना गया था कि वे आर.एस.एस. की शाखाओं में जाते रहे थे। पुलिस जांच में इसका उल्लेख आते ही उनके नियुक्ति पत्र को रोक लिया गया था। (नियुक्ति से हाथ खींचने का यह तरीका हमेशा प्रचलित रहा है)। निराशा स्वाभाविक थी। श्री मोदी सीधे मध्यप्रदेश के तब के मुख्य म॔त्री पं रविशंकर शुक्ल के दफ्तर में पहुंच गये। अपनी कहानी सुनायी। शुक्ल जी ने दिलासा देने के साथ साथ उन्ही दिनों होने जा रही प्रादेशिक सेवाओं की परीक्षा में बैठने की सलाह दी। कोई युवक इस तरह धड़धड़ाते अपने प्रदेश के मुख्यमंत्री के कार्यालय में घुस जाए और मुख्यमंत्री टोकने या डांटने की बजाए बैठा कर करियर काउंसलिंग करने लगें यह भी उस ज़माने में अजीब बात नहीं थी। 

इस मुलाकात में मोदी जी ने आर.एस.एस. के साथ अपने संबंधों को लेकर क्या कहा इसकी जानकारी तो उन दोनों के बीच ही रह गयी। लेकिन इतना ज़रूर हुआ कि सरकार की ओर से बाधाएं हटा ली गयीं और श्री मोदी के रूप में मध्यप्रदेश को एक जांबाज़ डी.एस.पी. मिल गया। 1950 के दशक में चम्बल के इलाके में डाकू गब्बर सिंह का बड़ा आतंक था। गब्बर को तांत्रिक किस्म के एक व्यक्ति ने बताया था यदि यह 101 बच्चों की नाक काट कर ईष्ट देवी को अर्पित करे तो अमर हो जायेगा। इसे गिरफ्तार करने के लिए पुलिस ने उस समय का सबसे बड़ा -"पचास हज़ार" - का इनाम घोषित किया हुआ था। म.प्र. पुलिस ने इस डाकू को समाप्त करने के लिए एक विशेष दल का गठन किया। इसका मुखिया बनाया गया 26 वर्षीय डी.एस.पी. राजेंद्र प्रसाद मोदी को। कई दिनों की लुका छिपी के बाद 13 नवम्बर 1959 के दिन मध्यप्रदेश के भिंड जिले में घूम-का-पुरा नामक गांव के पास खुले मैदान में पुलिस और गब्बर सिंह का आमना सामना हुआ। तब तक भारत में "एनकाउंटर युग" प्रारम्भ नहीं हुआ था। गोली चलाने से पहले अपराधी/डाकू को आत्मसमर्पण का ऑफर दिया जाता था। यहां भी प्रयास हुआ पर असफल रहा। कई घंटों की भीषण गोलाबारी हुई। इस मैदान की एक ओर नेशनल हाई-वे है और दूसरी ओर रेल्वे लाइन। सड़क पर बस और कार जैसे वाहन और पटरी पर ट्रेन खड़ी हो गयी। बसों और ट्रेन की छत पर चढ़कर लोग इस मुठभेड़ को देखते रहे। 

शाम होने को थी और गब्बर को अंधेरे का लाभ मिलने की पूरी संभावना बन रही थी। तभी श्री मोदी सामने आ गये और उस खुले मैदान में गब्बर को आमने सामने की मुठभेड़ में मार गिराया। गब्बर तब तक केवल उन्नीस नाक अर्पित कर पाया था। इस मुठभेड़ में कुल 13 दस्यु मारे गये और पूरा गैंग समाप्त हो गया। म.प्र., उ.प्र. और राजस्थान के बड़े इलाके में लोगों, विशेषकर बच्चों की माताओं, ने चैन की सांस ली। राजेन्द्र प्रसाद मोदी को वीरता के लिए राष्ट्रपति ने देश में पुलिस को दिया जाने वाला सर्वोच्च "प्रेसिडेंट्स पोलिस एन्ड फायर सर्विस मेडल फॉर गैलेन्टरी" पुरस्कार दिया। कुछ वर्षों में ही श्री मोदी को आई.पी.एस. अवाॅर्ड किया गया और आगे चलकर वे मध्यप्रदेश में इंस्पेक्टर जनरल के पद से सेवानिवृत्त हुए। 
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 राजेन्द्र प्रसाद मोदी और बरकतुल्लाह खान 
 

मोदी के मामले में पुलिस पर "दुर्भावना" का आरोप नहीं लग सकता। किन्तु 1972 में राजस्थान में एक केस में पुलिस की अज्ञानता (और संभावित दुर्भावना) की बुनियाद पर दूसरे अधिकारियों ने नकारने का महल खड़ा कर दिया था। उन दिनों बरकतुल्लाह खान उस राज्य के मुख्यमंत्री थे। एक दिन मुख्यमंत्री से मिलने उनके एक पुराने परिचित आये। बेटे की नौकरी का मामला था। बड़े दुखी स्वर में बताया कि दूसरों की नियुक्ति के आदेश निकल गये हैं किन्तु उनके बेटे के रोक लिये गये हैं। मुख्यमंत्री ने जानकारी ली तो पता चला कि पुलिस की जांच रिपोर्ट उम्मीदवार के विरुद्ध है। संयोग से जिस युवक का मामला था उसके परिवार से  बरकतुल्लाह के घनिष्ठ संबंध रहे थे और वे युवक को उसके बचपन से जानते थे। निहायत शरीफ़ और ज़हीन युवक था। उसका पुलिस रिकाॅर्ड खराब है यह बात उनके गले नहीं उतर रही थी। 

उन्होने इस केस की फ़ाइल अपने पास बुलवा ली। शुरुआत में ही दिख गया कि गृह सचिव ने नियुक्ति के विरुद्ध राय दी थी और पुलिस की "विपरीत" (एडवर्स) रिपोर्ट को अपनी राय का आधार बनाया था। और पन्ने पलटे तो यही राय डिप्टी सेक्रेट्री की और उससे पहले अंडर सेक्रेट्री और दूसरों की भी थी। फ़ाईल बहुत मोटी थी किन्तु श्री बरकतुल्ला भी हार मानने वाले नहीं थे। पन्ने पलटते गये और थानेदार की रिपोर्ट तक पहुंचे। थानेदार ने इस युवक को "बदचलन" लिखा था। 

यह वह काल था जब पुलिस और राजस्व महकमों में फारसी और उर्दू का चलन पूरे शबाब पर था। चालान, पेशी, मुखबिर, मुहर्रिर (रिकॉर्ड रखने वाला), तफ्तीश (जांच), तामील (पालन), दरयाफ्त (पूछताछ), फेहरिस्त (सूचि), सज़ायाफ्ता (सज़ा काट चुका व्यक्ति), मुद्दई (शिकायतकर्ता), मुल्ज़िम, दीवानी, फ़ौजदारी,  मुअत्तल (निलंबित), मुआईना (निरीक्षण), और फौत (मृत्यु) जैसे शब्द तो आज भी खूब चलन में हैं। लेकिन उन दिनों लिखने के लिये उर्दू की लिपि का उपयोग भी गाहे बगाहे कर लिया जाता था। अंग्रेज़ तो अपने पुलिस अधिकारियों को बाकायदा उर्दू की शिक्षा दे कर ही पोस्टिंग पर भेजते थे। भारत में शिक्षा तो नहीं दी गयी पर अधिकारियों से अपेक्षा की गयी कि कम से कम थोड़ा बहुत ज्ञान तो स्वयं अर्जित कर ही लेंगे। 

बरकतुल्लाह जिस केस के कागज़ात देख रहे थे उसमें थानेदार ने अपनी रिपोर्ट के लिए आधार बनाया था उस हेड-काॅन्सटेबल की फील्ड-रिपोर्ट को जो मौके पर जांच के लिए गया था। बरकतुल्लाह अवाक् रह गये जब उन्होने पढ़ा कि हेड-काॅन्सटेबल ने अपनी रिपोर्ट में "चाल चलन ठीक" लिखा था। गड़बड़ बस यह हुई थी कि हेड-काॅन्सटेबल ने अपनी रिपोर्ट उर्दू में लिख कर जमा की थी। थानेदार उर्दू लिपि पढ़ने में कमज़ोर था। बांचने की अधकचरी कोशिश की और हिन्दी में "बदचलन" लिख कर फाईल आगे बढ़ा दी। संभव है किसी किस्म का पूर्वाग्रह भी काम कर रहा हो। उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि इस लड़के की व्यक्तिगत जानकारी मुख्यमंत्री को होगी, या कि मुख्यमंत्री उर्दू के विद्वान होंगे (बरकतुल्लाह ने लखनऊ विश्वविद्यालय से कानून के स्नातक थे)। जिस युवक की यह कहानी है वह राजस्थान सरकार में प्रमुख सचिव के पद से सेवानिवृत्त हुआ। 
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-स्व. राजेंद्र प्रसाद मोदी जी के शुरुआती दिनों के बारे में मैंने अपने पिता से सुना था। नागपुर में मोदी जी जिन दिनों विद्यार्थी थे, पिताजी नागपुर के साइंस काॅलेज में गणित के प्रोफेसर थे। एयरफ़ोर्स अफसर की पृष्ठभूमि होने के कारण उन्हे नागपुर के सभी महाविद्यालयों में नयी प्रारम्भ एन.सी.सी. को स्थापित करने की जिम्मेदारी दी गयी थी। 
-बरकतुल्लाह खान का लिखा अनुभव पढ़े समय बीत गया। अधिकारी का नाम याद नहीं कर पा रहा हूं। 
-सलीम-जावेद वाले सलीम के पिता मध्यप्रदेश पुलिस की नौकरी में थे। "शोले" में डाकू का नाम गब्बर सिंह रखने की प्रेरणा उन्हे पिता से मिली हो तो ताज्जुब नहीं। (देशबन्धु से)

 

(छत्‍तीसगढ़ के सारंगढ़ राजघराने से संबद्ध लेखक स्‍वतंत्र लेखन करते हैं। गिरिविलास पैलेस में निवास।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।