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बेबस लोकतंत्र और खामोश साहित्य के बीच रूपसपुर-चंदवा -22 नवंबर को रांची में राष्ट्रीय सेमिनार

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द फॉलोअप टीम, रांची:

जमीन के सवाल पर पहला आदिवासी जनसंहार पूर्णिया जिले के रूपसपुर-चंदवा में 50 साल पहले 22 नवंबर 1971 को हुआ था। इस नृशंस हत्याकांड में 14 संतालों को जिंदा जला दिया गया था। औरतें, बूढ़े और बच्चे सभी शहीद हुए थे। सैंकड़ो लोग घायल और लापता हो गए थे। इस लोमहर्षक आदिवासी जनसंहार की 50वीं बरसी पर रूपसपुर-चंदवा के लड़ाकों और शहीदों की याद में इस 22 नवंबर को रांची में एक दिन का सेमिनार होने जा रहा है। आयोजन  झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा और डॉ. रामदयाल मुंडा जनजातीय शोध कल्याण संस्थान मिलकर कर रहा है। सेमीनार सोमवार को सुबह 10 बजे से रांची के मोराबादी स्थित टीआरआई हॉल में शुरू होगा। उक्त जानकारी अखड़ा के केंद्रीय प्रवक्ता केएम सिंह मुंडा ने दी है।

इस राष्ट्रीय सेमीनार में दिल्ली के जानेमाने समाजशास्त्री डॉ. आनंद चक्रवर्ती और महाराष्ट्र के आदिवासी साहित्यकार वाहरू सोनवणे, आदिवासी अधिकार एक्टिविस्ट ग्लैडसन डुंगडुंग, इलाहाबाद युनिवर्सिटी के प्राध्यापक और लेखक डॉ. जनार्दन गोंड, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के स्कॉलर अभिषेक किंडो, आली से जुड़ी मानवाधिकार एक्टिविस्ट रेशमा सिंह आदि सहित अनेक शोधार्थी भाग लेंगे। 50 साल पहले हुए रूपसपुर-चंदवा हत्याकांड के भुक्तभोगी और पूर्णिया के धमदाहा प्रखंड के संथाल आदिवासी रूप टुडू इस सेमीनार में विशेष तौर पर उस दिन बर्बर घटना का आंखों देखा हाल सुनाएंगे।

झारखंडी अखड़ा की महासचिव वंदना टेटे और शोध संस्थान के निदेशक रणेन्द्र ने बताया कि ‘बेबस लोकतंत्र और खामोश साहित्य के बीच रूपसपुर-चंदवा (1971-2021)’ विषयक इस राष्ट्रीय सेमीनार का उद्देश्य समाज और साहित्य लेखन में रूपसपुर-चंदवा कांड की उपेक्षा तथा बिहार के पूर्णिया अंचल में व्याप्त बंटाईदारी-किसान आंदोलन से संबंधित भूमि संघर्ष के विभिन्न आयामों और भूमि सुधार से जुड़े ऐतिहासिक सवालों पर विचार-विमर्श करना है। जिसके चलते बिहार में 70 के बाद से रूपसपुर-चंदवा, बेलछी, दललेचक-बघौरा, लक्ष्मणपुर-बाथे आदि दर्जनों जातीय नरसंहार हुए और दोनों पक्षों से सैंकड़ों लोगों की जान गई।