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उग्र राष्ट्रवाद की प्रयोगशाला बने एक देश में स्‍त्री की त्रासद कथा

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पुष्परंजन, दिल्‍ली:

जर्मन लेखिका अलेक्ज़ेड्रा स्टीगलमायर की बहुचर्चित पुस्तक है,  'मास रेप द वार अगेंस्ट वूमन इन बोस्निया हर्जे़गोबिना'। अलेक्ज़ेड्रा स्टीगलमायर से मेरी मुलाक़ात ब्रसेल्स में हुई थी, तब से मन में यह ख़लिश थी कि कोई भारतीय लेखक, पत्रकार वहां क्यों नहीं जाता और दमन की दास्तां हिंदी में लिखता। प्रोफ़ेसर गरिमा श्रीवास्तव ने अंततः वह कर दिखाया। उनकी पुस्तक का नाम है, 'देह ही देश।' पुस्तक की भूमिका 14 पन्नों की। ढूंढिये कि इतनी लंबी भूमिका किसी और ने लिखी, या नहीं? फ्रेंच उपन्यासकार मार्सेल प्रुस्त की विश्व प्रसिद्ध पुस्तक 'अ-ला रिचर्श दु तम पेरदू' (माज़ी की तलाश), सात भागों में प्रकाशित हुई थी। मगर, दो पन्नों में उसका प्राक्कथन निपट गया था। मेरी निजी लाइब्रेरी में 24 प्लस वन वॉल्यूम की इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका है, जिसकी प्रस्तावना केवल एक पेज की है। 556 पृष्ठों वाली पुस्तक 'हिंदी बाल साहित्य का इतिहास' की भूमिका प्रकाश मनु ने 11 पन्नों में लिखी थी। 'देह ही देश' के प्राक्कथन पर 14 पन्ने ख़र्च किये गये। प्रस्तुतीकरण ऐसा कि मैं पेज-दर-पेज अनहद आगे बढ़ता चला गया। जाने सूरदास का स्मरण कैसे हो जाता है-'मो सम कौन कुटिल खल कामी....पापी कौन बडो हैं मोते, सब पतितन में नामी।'

बाल्कन संकटग्रस्त इलाका रहा है। उग्र राष्ट्रवाद की एक और प्रयोगशाला। बंदूक की नोक पर कोख पर कब्जा करो, पूरी नस्ल बदल दो। वृहत्तर सर्बिया बनाने के वास्ते उन्माद पैदा करो। राष्ट्रवादी गिद्धों का शिकार हुआ बोस्निया-हर्जेगोबिना-क्रोएशिया। वहां जो ज़ुल्म हुए उस कलंक को अपने माथे पर लिये यूरोप वाले क्यो घूमते रहे हैं? इस सवाल का उत्तर जर्मनी रहते हुए भी मुझे नहीं मिला। डॉयचेवेले में नौकरी के दौरान इस इलाक़े को समझने के वास्ते मैंने रॉय गुटमन की 'अ विटनेस टू जेनोसाइ' , नॉर्मन एल सीगर की 'जेनोसाइड इन बोस्निया' , जोशुआ गोल्डस्टीन की 'वार एंड जेंडर' पढ़ी थी। एक चौथी किताब का स्मरण है, जर्मन लेखिका अलेक्ज़ेड्रा स्टीगलमायर की 'मास रेप द वार अगेंस्ट वूमन इन बोस्निया हर्जे़गोबिना'। अलेक्ज़ेड्रा उस इलाक़े में गईं और बलात्कार की शिकार औरतों के इंटरव्यू किये थे। अलेक्ज़ेड्रा स्टीगलमायर से ब्रसेल्स में मेरी मुलाक़ात हुई थी, तब से मन में यह ख़लिश थी कि कोई भारतीय लेखक, पत्रकार वहां क्यों नहीं जाता और दमन की दास्तां हिंदी में लिखता। भारतीय भाषा केंद्र जेएनयू में हिंदी की प्रोफेसर हैं गरिमा श्रीवास्तव। उनकी पुस्तक 'देह ही देश' को यात्रा वृतांत कहना ठीक नहीं होगा। 'डायरी' कहा है लेखिका ने, तो सही ही कहा। लंबे समय तक युद्धरत क्रोएशिया में 12 नवंबर 1995 को शांति स्थापित हुई थी। उसके बाद के दो दशकों के कालखंड मेें पूर्वी यूरोपीय देश क्रोएशिया किस रूप में रहा है, उसकी आपबीती 192 पन्नों में उकेरी गई है।

 

Deh Hi Desh (देह ही देश) by Garima Srivastava (गरिमा श्रीवास्तव) - YouTube

कहानी का केंद्र क्रोएशिया की राजधानी जाग्रेव है। बीच-बीच में उन पत्रों की चर्चा जिसमें लेखिका का माज़ी, उनके सहपाठी, शिक्षक और परिजनों के संस्मरण। शांतिनिकेतन में दोस्त वैशाली से बंगाली में संवाद, 'तुमि शब किच्छू भुले शुधु आनंद कोरो' (तुम सबकुछ भूलकर सिफ़र् आनंद करो)। कभी कोलकाता, तो कभी हैदराबाद, बोलपुर, हावड़ा व पूर्वांचल-बिहार का भोजपुरीभाषी माहौल, क्रोएशिया की रेलयात्रा के दौरान बंगाल की ट्रेन में रेहड़ीवालों की याद। इस तरह के कोलाज लेखिका के बहुसांस्कृतिक, बहुभाषी परिवेश की ओर इशारा करते हैं। पत्रों के मजमून को साथ चलती हुई मुख्य कहानी से लिंक कर देना, और पढ़ने वाले को कहीं बाधा नहीं महसूस होने देना, डायरी लेखन की अदभुत कला को दर्शाता है। खुशबीर सिंह शाद की एक पंक्ति है, 'कई ना-आश्ना चेहरे हिजाबों से निकल आये, नए किरदार माज़ी की किताबों से निकल आये।' यूरोप में पहली बार प्रवेश करने वाले के लिए मौसम, भाषा, खानपान शुरू में अजूबा लगता है। दो संस्कृतियों की तुलनात्मक तस्वीर पुस्तक में बाज़दफा देखी जा सकती है। ज़ाग्रेब स्थित सिएत्ना-सेस्ता के फ्लैट में रहने, दरवाज़े का लॉक सिस्टम, पड़ोसन द्रागित्सा, हिंदी विभाग के सहकर्मी और जिनसे मन मिले उनके साथ लेखिका की तफरीहबाज़ी सबकुछ डायरी को रोचक बनाये रखता है। फिर अचानक से डायरी को युद्धोन्माद में यौन अत्याचार की शिकार औरतों के भयावह अफसाने की ओर मोड़ देना, कहानी लेखन की कुशलता मानिये। क्रोएशिया का इतिहास, युद्ध और छल-कपट का इतिहास है। उस इतिहास का जीवंत हिस्सा है ज़ाग्रेब, जो पूर्वी यूरोप में ज़िस्म की सबसे बड़ी मंडी बताई जाती है।

 

माओ का जुमला साठ के दशक में बहुतों की ज़ुबान पर गूंजता था-'सत्ता बंदूक की नली से निकलती है।' आप 'देह और देश' के पन्नों को पलटिएगा, तो पता चलेगा कि बंदूक की नली से बर्दा-फ़रोशी का सृजन भी होता रहा है। बंदूक की नली से राष्ट्रवाद ही नहीं, पितृसत्तात्मक शक्तियां भी निकली हैं। अनगिनत संख्या में बिन ब्याही माएं निकली हैं। एरिज़ोना की देह मंडी में बिकनेवाली बेबस लड़कियां निकलती हैं बंदूक की नली से। पोलैंड का आउशवित्ज़-बिर्केनाउ यातना शिविर पूरा दिन घूमने के बाद कई रात मैं सो नहीं सका था, यह पुस्तक भी संवेदनाओं को बीच-बीच में वैसे ही खुरचती है। इसे पढ़ने पर लगता है, गोया पूरा बोस्निया-हर्जेगोबिना, क्रोएशिया बंदूकधारी गिद्धों का अभयारण्य रहा हो। मुझे इराक वार कवर करने के दौरान यु़द्ध पीड़िताएं बड़ी संख्या में मिलीं, मगर देह नोंचने की जो दास्तां बाल्कन की है, वह तो मानव सभ्यता पर कलंक है। तालिबान वालों की लकीर इनसे छोटी है। दैहिक संबंध से असहमत बच्चियों के स्तन व दूसरे अंगों को काट लेना, औरतों को ज़िंदा जला देना 'सो कॉल्ड सभ्य' कहे जाने वाले यूरोप में बहुत पहले से था। लिली (लिलियाना) जैसी किरदार कईयों की आपबीती बताने का माध्यम बनती है। मई 1992-93 में सैनिकों की बहशीपन की शिकार नीसा, सेदा ब्रानिच, डोरा। ऐसे बहुतेरे नामों को आप इस पुस्तक के पन्नों में पायेंगे।

 

पुस्तक में सर्ब-क्रोट संघर्ष के इतिहास की भी चर्चा है। विस्थापन व बलात्कार का कोई भरोसेमंद आंकड़ा नहीं। गर्भधारण और गर्भपात की कोई गिनती नहीं। सभी परस्पर विरोघी। बोस्नियाई मुसलमान बर्दाश्त नहीं करते कि किसी ने उनकी बीवी-बेटी से ज़बरदस्ती की हो, चुनांचे, परिवार बिखरने से बचाने के वास्ते पीड़िता मुंह बंद रखती। यौन हिंसा के शिकार पुरूष और बच्चे भी हुए, जो और भी जुगुप्सा पैदा करता है। ज़बरदस्ती की शिकार महिलायें सरकारी मुआवजे स्वीकार कर अपने ज़ख्म का टाँका फिर से खोलना नहीं चाहती थीं। जो यौन उत्पीड़न की शिकार हुईं, उनमें से बहुतेरों ने यौन व्यापार को ही जीने का ज़रिया बना लिया। डायरी में मंटो का 'खोल दो' भी आ जाता है, यशपाल का झूठा सच और यश मालवीय की कविता, 'हम मांस के थरथराते झंडे हैं' , वह भी। ये क्या इसलिए कि ईश्वर ने जो 'आदम' बनाया है, उसके डीएनए में दरिंदगी है? या कि मर्द का मनोजैविक विचलन? लेखिका का 'फेमिनिजम' यौन दरिंदगी के विरोध में बार-बार दरपेश हुआ है। कहीं न कहीं यह स्त्री अधिकारवाद को मज़बूत करता दिखता है। ब्रिटिश डिटेंशन सेंटर में पूर्वी यूरोप से मानव तस्करों के चंगुल से छुडाकर लाईं अवसादग्रस्त औरतें, उनके बीच बचपन से बलात्कार की शिकार सिलिया। गरिमा श्रीवास्तव के शब्द ताक़तवर हैं, आप उससे गुज़रेंगे, यक़ीन मानिये हिल जाएंगे। समुदाय विशेष पर सितम की कथा के साथ-साथ भारतीय व क्रोएशियाई खान-पान, भारतीय दूतावास का माहौल भी डायरी का हिस्सा बनता है। इस पुस्तक के बहुआयामी फलक हैं, उन्हें एक-दूसरे से पिरोना आसान काम नहीं था। थोड़ी सी चूक हुई, पूरा का पूरा बिखर जाने का जोखिम। दिल्ली, मुंबई, पुणे, कोलकाता की देहमंडी से बाल्कन देशों में जारी ज़िस्मफरोशी की बराबरी करना, और दो घ्रुवों पर बैठे भारोपीय समाज का तुलनात्मक विश्लेषण। यह पूरी पुस्तक मर्दवादी समाज के पिछवाड़े पर ऐसी लात लगाती है कि दिमाग भन्ना जाता है!

 

(कई देशी-विदेशी मीडिया हाउस में काम कर चुके लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं। संंप्रति ईयू-एशिया न्यूज के नई दिल्ली संपादक)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।