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सोचो ज़रा: रीति-रिवाज को भी सांप्रदायिक नज़रिये से देखना!

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अजय तिवारी, दिल्ली:

दीवाली के कुछ विज्ञापनों पर एक विशेष प्रकार के संगठनों ने आपत्ति की क्योंकि उसमें “हिंदू” त्योहार के लिए “मुस्लिम” संस्कृति का उपयोग दिखायी दिया। अब तो हद हो गयी कि “जश्न-ए-रिवाज” पदावली के प्रयोग पर हिंदुत्ववादियों ने आपत्ति जताई है। कारण, उर्दू का उपयोग! गोया हिंदी हिंदुओं की भाषा हो और उर्दू मुसलमानों की! यह सब देखकर मेरा सिर शर्म से झुक जाता है। मूर्खता कितनी दंभी होती है और अज्ञान कितना आत्मविश्वासी! पहले भाषा का ज़िक्र। जिस खड़ीबोली हिंदी में हम अपना सारा सांस्कृतिक-शैक्षणिक-आर्थिक कार्य करते हैं, उसके निर्माता केवल हिंदू नहीं थे। यह सर्वविदित ऐतिहासिक तथ्य है कि उस खड़ीबोली के पहले कवि अमीर खुसरो मुसलमान सूफ़ी थे, खलजियों के सम्मानित मंत्री और इतिहासकार। उस हिंदी के पहले कहानीकार अमरीका से आये पादरी फ़ादर रेवरेंड जे. न्यूटन थे जिन्होंने 1872 में ‘जमींदार का दृष्टांत’ कहानी लिखी थी। 

न्यूटन से पहले हिंदी के लिए लड़ने वाले योद्धा थे इंशा अल्लाह खाँ, उन्होंने 1802 में ‘रानी केतकी की कहानी’ लिखकर ब्रज और उर्दू दोनों से स्वतंत्र हिंदी की अभिव्यक्ति का रास्ता बनाया था। इंशा का संकल्प था कि ऐसी कहानी लिखना है जिसमें केवल हिंदी का प्रयोग होगा:

यह वह कहानी है कि जिसमें हिंदी छुट
और किसी  बोली का  मेल है,  न पुट॥

इस बात को याद रखें कि औरंगज़ेब की मृत्यु के दस साल बाद मुग़ल दरबार में फिरंगियों और ईरानियों की मिलीभगत से एक नयी भाषा ईजाद की जा रही थी, उसे उर्दू कहा गया। इंशाअल्लाह ने इस नीति का विरोध किया। वे जानते थे कि ब्रजभाषा से नये समय में काम नहीं चलेगा और उर्दू उसकी जगह नहीं ले सकती क्योंकि शुरू-शुरू में हिंदी के व्याकरण को लेते हुए शब्द-भंडार के लिए फ़ारसी को अपनाया गया था। भारत में भारतीय भाषा ही काम आयेगी। इंशा का यह नज़रिया सही था। बस, इंशा की कहानी का ढाँचा पुरानी कहानियों जैसा था इसलिए उसे आधुनिक कहने में संकोच होता है। लेकिन न्यूटन की कहानी का ढाँचा भी आधुनिक है। 

 

Hindi defeated Urdu in the language wars, but the victory came at a price -  TFIPOST

 

आगे चलकर उर्दू के लेखकों ने बोलचाल की भाषा को आदर्श बनाया और जनसमाज में अभिव्यक्ति का एक समर्थ माध्यम विकसित हुआ। हिंदी भाषी जनता में जिस तरह कबीर, तुलसी, रहीम, सूर, मीरां, भारतेंदु, निराला, प्रेमचंद, असग़र वजाहत लोकप्रिय हैं, उसी तरह मीर, ग़ालिब, नज़ीर, फ़ैज़, फ़िराक़, कैफ़ी, साहिर भी लोकप्रिय हैं। यह हमारी वास्तविक संस्कृति है। कृष्ण की भक्ति पर पद गाने वाले रसखान के बिना हिंदी साहित्य की कल्पना नहीं की जा सकती, होली-दीवाली पर नज़ीर की नज़्मों के बिना उत्सव की कल्पना नहीं की जा सकती। 

“जश्न-ए-रिवाज” पर आपत्ति करने वाले पिछली तीन शताब्दियों में विकसित इसी भारतीयता पर कुठाराघात कर रहे हैं। वे भारतीय संस्कृति के शत्रु हैं। उन्हें याद दिलाने की ज़रूरत है कि उनकी संकीर्णता से चलने पर हमें अपने सबसे महान ग्रंथ रामचरितमानस को ही नष्ट कर देना पड़ेगा क्योंकि तुलसीदास ने कहा है, ‘जड़ चेतन गुण दोष मय विश्व कीन्हि करतार।’ यह करतार फ़ारसी का है। ब्रह्म के लिए तुलसी ‘करतार’ कह रहे हैं। उन्हें डर नहीं था कि कुछ उपद्रवी उठेंगे और ‘जश्न-ए-रिवाज’ की तरह करतार को हटाने की माँग करने लगेंगे। यही नहीं, तुलसी तो अपने राम को ‘गरीबनेवाज’ कहते हैं। यह जिन दो शब्दों से बना हुआ पद है, दोनों फ़ारसी के हैं! 

 

जिस तरह हिंदी के निर्माण में मुसलमानों का बहुत बड़ा योगदान है, उसी तरह उर्दू के निर्माण में हिंदुओं का बहुत बड़ा योगदान है। भाषाएँ धर्म की पहचान नहीं करातीं। भाषाओं का संबंध संस्कृति से होता है। यूरोप में भी आधुनिकता का सूत्रपात धर्म के प्रभुत्व को चुनौती देते हुए भाषायी राज्यों के अभ्युदय के साथ हुआ था। तभी धर्म भाषा लैटिन की जगह जातीय भाषाएँ फ़्रांसीसी, स्पैनिश, जर्मन, अंग्रेज़ी आदि का विकास हुआ। यही नियम भारत में लागू हुआ। देववाणी संस्कृत की जगह लोकवाणी हिंदी, बंगाली, मराठी, गुजराती, असमी, तमिल, कन्नड़ आदि का व्यवहार हुआ। इन सभी भाषाओं के विकास में मुसलमानों का बहुत बड़ा योगदान रहा है। इस आधुनिक प्रक्रिया को उलटने का प्रयास अनैतिहासिक , इतिहास-विरुद्ध है।  आशा है, इस इतिहास विरोधी और समाज विरोधी कार्य को व्यापक समर्थन नहीं मिलेगा क्योंकि हम पिछली छह-सात शताब्दियों में हासिल अपनी उपलब्धियाँ गँवा देने के लिए तैयार नहीं हैं।

 

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में  हिंदी के एचओडी रहे हैं। हिंदी के आलोचक। कई अहम किताबें प्रकाशित। संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।