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महापर्व छठ-4 : उल्लास कम आत्मसयंम के पर्व का समापन, जानिये कुछ ख़ास बातें

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पुष्‍यमित्र, पटना:

नीचे तस्वीर मेरे गांव के भगवती गृह की है। इसमें आप तीन पिण्ड देख रहे होंगे। ये देवी काली, शीतला और विषहरा हैं। कुलदेवी के रूप में इन तीनों देवियों की पूजा हमारे परिवार में होती है। कई लोगों की पांच और सात कुलदेवियां भी होती हैं। इसके अलावा कुलदेवता भी होते हैं, मगर आज देवियों-कुलदेवियों की बात। काली काल की देवी है। काल यानी वक़्त भी और मृत्यु भी। इसलिये युद्ध में विजय और सुरक्षा की चिंता करने वाले काली की पूजा जरूर करते थे। बाद में चम्बल और दूसरे बीहड़ इलाकों के डकैत भी करने लगे। विषहरी विष को हरने वाली या जहरीले सांपों से रक्षा करने वाली देवी है। शीतला और हरिति रोगों से रक्षा करने वाली देवियां हैं। शीतला चेचक से रक्षा करती हैं और चेचक होने पर निरोग करती हैं। हरिति बौद्ध देवी हैं जो बच्चों और माताओं की रोग और असमय मृत्यु से सुरक्षा करती हैं। हरिति की तरह षष्ठी माता भी हैं जो शिशुओं को असमय मृत्यु से बचाती हैं। जन्म से पांच वर्ष की उम्र तक बच्चा सबसे अधिक संकट में होता है। आज भी विज्ञान कहता है कि इस उम्र तक शिशु की विशेष देखभाल की जाये। स्वास्थ्य विभाग विशेष गणना करता है कि पांच वर्ष तक की उम्र के शिशुओं के बचे रहने की कितनी दर है। जब आज ऐसी स्थिति है तो हजार-दो हजार वर्ष पहले तक निश्चित रूप से स्थिति बहुत गम्भीर रही होगी। तभी से नवजात शिशुओं को जीवन देने वाली देवी षष्ठी की पूजा शुरू हुई। यही छठी मैया हैं।

 

ऐसा नहीं है कि षष्ठी देवी की पूजा सिर्फ बिहार के लोग करते हैं। उत्तर भारत के अमूमन सभी हिन्दू समुदायों में छठी मैया की पूजा होती है और बच्चे के जन्म के छठे दिन विशेष रूप से उसकी छट्ठी मनायी जाती है। और अपनी छठी का दूध हर किसी से याद रखने की अपेक्षा की जाती है। हाँ, बिहार के लोग विशेष रूप से ऋतु परिवर्तन के वक़्त भी छठी मैया की आराधना करते हैं। चैत में भी और कार्तिक महीने में भी। तब अनुष्ठान पूर्वक नदी, पोखर, तालाब के किनारे सूर्य को अर्घ देकर छठी मैया से कहा जाता है कि इस ऋतु परिवर्तन के दौरान विभिन्न संक्रमणों  से शिशु की रक्षा करें। सूर्य देव से कहती हैं कि गर्मी या ठंड के उग्र मौसम में अपनी संतुलित ऊष्मा बनाये रखें। क्योंकि सूर्य की संतुलित ऊष्मा ही हम सबके जीवन का आधार हैं। सर्दियों में ऊष्मा की जरूरत अधिक होती है इसलिये कार्तिक छठ की आराधना में लगभग हर परिवार की भागीदारी होती है। हालांकि आने वाले दिनों में इस अनुष्ठान की महिमा बढ़ने लगी है। लोग छठी मैया से तरह तरह की मांग करने लगे हैं। इनमें सन्तान की मांग सर्वोपरि है। सन्तान मिलने पर लोग खास कर मातायें हर साल छठी माता को धन्यवाद ज्ञापन करते हुए उनकी नियम, निष्ठा और कठिन उपवास के साथ पूजा की जाती है। आसपास में उपलब्ध विभिन्न किस्म के फल और पकवान का प्रसाद चढ़ाया जाता है। 

 

बिहार के धमदाहा में लेखक के पारिवारिक पोखर पर सुबह वाले अर्घ के समय उनकी मां की तस्वीर, यह तस्वीर नील ने ली है।

 

यह उल्लास का पर्व कम आत्मसयंम का पर्व अधिक है और हिन्दू धर्म में संयम बौद्ध, जैन और आजीवक जैसी परम्पराओं से आया है। मैने ऊपर जिन देवियों का जिक्र किया है, ये सभी भय-मिश्रित आत्मसंयम वाली आराधना  से प्रसन्न होती हैं। ये सभी विभिन्न आपदाओं और रोगों से सुरक्षा देती हैं। इन देवियों की आराधना अमूमन कुषाण काल में शुरू हुईं और गुप्त और हर्षवर्धन के काल तक आकार ग्रहण करती रहीं। और अभी भी उत्तर भारतीय लोक की चेतना में उसी तरह बसी हैं। खास कर महिलाओं की चेतना में जो हमेशा से युद्ध और रोग की आपदाओं में अपने परिजनों को खोने का दंश भोगती रही हैं। इसलिये उनके मन में इन देवियों को लेकर गहरी श्रद्धा है।

 

बहुत मुमकिन है कि इन देवियों की रचना उत्तर भारत के स्त्री समाज ने ही की होगी। क्योंकि इन देवियों की आराधना में अमूमन पण्डितों की भूमिका न्यूनतम होती है। शास्त्रों में अमूमन इनका जिक्र कम है, है भी तो उसका स्वरूप अलग है। वह स्वरूप नहीं है, जिन रूप में स्त्रियां इनकी उपासना करती हैं। ये देवियां भारतीय समाज की स्मृतियों के सहारे हजार दो हजार साल से जीवित हैं। जब भी परिवार का कोई सदस्य संकट में पड़ता है तो स्त्रियां झट से मनौती मांग लेती हैं। यह उनका सबसे बड़ा शस्त्र है। लोकदेवियों के इस संसार का अब तक ढंग से अध्ययन नहीं हुआ है। इन्हें अमूमन विद्वत समाज अन्धश्रद्धा के खाते में डाल देता है। जबकि ये उस वृहद लोक को सदियों से जीवन जीने लायक उत्साह देने वाली प्रतीक हैं।

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(लेखक  एक घुमन्तू पत्रकार और लेखक हैं। उनकी दो किताबें रेडियो कोसी और रुकतापुर बहुत मशहूर हुई है। कई मीडिया संस्‍थानों में सेवाएं देने के बाद संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।