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साबरमती का संत-35: महात्‍मा गांधी की विनम्रता सायास हथियार नहीं नैसर्गिक गुण रही

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(‘आने वाली नस्लें शायद मुश्किल से ही विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस से बना हुआ कोई ऐसा व्यक्ति भी धरती पर चलता-फिरता था’ - आइंस्टीन ने कहा था। आखिर क्षीण काया के उस व्यक्‍ति में ऐसा क्या था, कि जिसके अहिंसक आंदोलन से समूची दुनिया पर राज करने वाले अंग्रेज घबराकर भारत छोड़ गए। शायद ही विश्व का कोई देश होगा, जहां उस शख्सियत की चर्चा न होती हो। बात मोहन दास कर्मचंद गांधी की ही है। जिन्हें संसार महात्मा के लक़ब से याद करता है। द फॉलोअप के पाठक अब सिलसिलेवार गांधी और उनके विचारों से रूबरू हो रहे हैं। आज पेश है,  35वीं किस्त -संपादक। )

 

कनक तिवारी, रायपुर:
गांधी ने दो अक्टूबर 2019 को अपने 150 वें जन्मवर्ष में प्रवेश किया, तो मेरी किताब ‘रेत पर पिरामिडः गांधी एक पुनर्विचार‘ प्रकाशित हो गई। इसकी भूमिका प्रसिद्ध लेखक विनोद शाही ने लिखी। अपने प्रिय अनुज अनुपम मिश्र की याद में पुस्तक मैंने विचारकों डाॅ0 रामजी सिंह, सच्चिदानन्द सिन्हा, अशोक वाजपेयी ओम थानवी, अभय कुमार दुबे, कुमार प्रशांत और रवीश कुमार को समर्पित की। दो अक्टूबर 2020 को गांधी 150 वर्ष के होकर चले गए। उस दिन मेरी दूसरी किताब ‘गांधी का नागरिक धर्म‘ प्रकाशित हुई। गिरिराज किशोर, शंकर गुहा नियोगी और अनुज अनुपम मिश्र की याद में यह किताब मैंने जनयोद्धाओं अमरनाथ भाई, प्रो कृष्ण कुमार, मेधा पाटकर, हर्ष मंदर, राममोहन राय और हिमांशु कुमार को समर्पित की। इसकी भूमिका गांधी प्रतिष्ठान नई दिल्ली के अध्यक्ष कुमार प्रशांत ने लिखी।

1994-1999 की अवधि में मैं मप्र सरकार द्वारा महात्मा गांधी 125 वां जन्मवर्ष समारोह समिति का राज्य समन्यवयक बनाया गया था। तब मेरे निर्देशन में समिति ने 50 महीने में 100 राष्ट्रीय स्तर के कार्यक्रम और 75 पुस्तकों सहित 15 पुस्तिकाओं, पर्चो आदि के 90 प्रकाशन किए थे। अचरज है छत्तीसगढ़ में जो लोग गांधी की राह पर चलकर सरकार चलाने का दावा कर रहे हैं। उन्हें इन बातों की जानकारी नहीं है, जबकि देश में सबको पता है। अलबत्ता स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंह देव ने 4 अक्टूबर 2019 को गांधी जयंती के अवसर पर सरगुजा विश्वविद्यालय में मेरा भाषण कराया और मेरा सम्मान भी किया। मैंने रेत पर पिरामिड नाम की गांधी पर लिखी 2 अक्टूबर 2019 को जारी किताब की पहली प्रति उनको उस समारोह में भेंट की थी।


गांधी पाठशाला में गांधी से मुठभेड़

महानता एक तरह से व्यक्तित्व का चरमोत्कर्ष है लेकिन हीनतर व्यक्तित्वों का मनोवैज्ञानिक शोषण भी है। महानता में सात्विक अहंकार और नैतिक अहम्मन्यता का पुट अपने आप ठुंस जाता है। एकांगी महान व्यक्ति किसी क्षेत्र में बहुत ऊंचा हो जाता है। बाकी लोग बौने लगते उसकी ओर टकटकी लगाए रहते हैं। गांधी अलग तरह के महान व्यक्ति थे। उन्होंने सदैव व्यापारिक कुशलता बरती कि उनमें कहीं देवत्व, पांडित्य या आसमानी अंश उग नहीं आए। कहना मुश्किल है कि अपनी महानता का बोध उन्हें नहीं रहा होगा। उन्होंने सतर्क रहकर बार बार इस बात के विपरीत उल्लेख किए हैं। गांधी भारत के हर खेत में इंसानियत की फसल उगाने के फेर में थे। उन्होंने अपने पैरों का उपयोग दूसरों के सिर पर रखने के बदले सड़कें और पगडंडियां नापने में किया। धवल, भगवा या भड़कीले वस्त्र पहनने के बदले वस्त्रों की किफायत को ही अपनी कैफियत बनाया। देह को धूल, मिट्टी और पसीने से सराबोर किया। पहली बार आराध्य अपने भक्तों के मुकाबले दिखाऊ नहीं बना। 

 

गांधी प्रखर, प्रभावशाली या बोझिल दीखने से परहेज करते थे। उनकी विनम्रता सायास हथियार नहीं नैसर्गिक गुण रही है। नैसर्गिक जन्मजात के अर्थ में नहीं, उनकी व्यापक रणनीति की केन्द्रीय संवेदना के अर्थ में थी। उन्हें भीरुता, कायरता तथा हीन आत्म समर्पण से बेसाख्ता नफरत थी।                वे इसी नस्ल और क्रम के औरों की तरह अहिंसा के प्रवर्तक पुरोहित थे। गांधी ने वस्तुतः अहिंसा को केवल महसूस करने से आगे बढ़कर लोक हथियार के रूप में तब्दील किया था। प्रचलित शिक्षाओं से आगे बढ़कर उन्होंने व्यक्तिगत अहिंसा के साथ साथ समूहगत अहिंसा के मैदानी प्रदर्शन का भी पुख्ता उदाहरण भी पेश किया। यही बीजगणित है जो गांधी को आज तक हमारे सामाजिक व्यवहार का ओषजन बनाए हुए है। 

एक सैन्य टुकड़ी का नाम सुभाषचंद्र ने गांधी के नाम पर भी रखा

सुभाष बाबू ने अपनी एक सैन्य टुकड़ी का नाम गांधी के नाम पर भी रखा। हालांकि सुभाष बोस के त्रिपुरी कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद शायद गांधी के इशारे पर कार्यसमिति ने सहयोग नहीं किया। गांधी की पत्नी और बहन से भी नहीं पटी। उन्होंने साबरमती आश्रम में कुष्ठ रोग से पीड़ित एक नामालूम इंसान का मल उठाने से इंकार कर दिया था। महात्मा के चार पुत्रों में किसी ने उनके नाम का फायदा नहीं उठाया। परिवारवाद का शब्द गांधी के लिए गाली की तरह इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। जिस पार्टी को उसने रचा वह खुद नरसिंह राव और मनमोहन सिंह के आर्थिक उदारवाद के चक्कर में फंस गई। गांधी के सपनों का भारत तो किसी ने गढ़ने की कोशिश नहीं की। फिर भी राष्ट्रपिता कहलाता गांधी राष्ट्रपति भवन से लेकर जजों के पीछे दीवारों पर टंगा लाचार मुअक्किलों को ढाढ़स बंधाता रहता है। उसकी तस्वीर के नीचे बैठे मंत्री करोड़ों की घूस लेते देश के लिए अरबों की हेराफेरी करते रहते हैं।   गांधी की रक्षक लाठी एक बकरी तक को मार नहीं पाती। वह अल्पसंख्यकों को गोरक्षकों और बीफ के बीच फंसा देखकर लाचार होता होगा। वह देख रहा है विदेश से आने वाला हर राजपुरुष उसके स्मारक पर मत्था टेकता है। वह यह भी सह रहा है कि राजघाट के दरवाजे जनता के लिए बंद कर वहां हिन्दुत्व की विचार बैठकें आयोजित हों। उनमें गांधी का प्रिय भजन ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम‘ जाहिर तौर पर खारिज भी किया जाए। 

 

संचार, संवाद, संस्कृति, सम्पर्क आदि के साधनों के अभाव में भी गांधी में ऐसी जिजीविषा के बीजाणु थे, जो खुद उनकी जानकारी में नहीं थे। एक ब्राह्मण का दर्प, काठियावाड़ी वैश्यता, मर सकने का क्षत्रिय साहस और अंतिम व्यक्ति तक को बांहों में भरने का नैतिक शूद्रत्व गांधी की देह में कुलबुलाते थे।       दक्षिण अफ्रीका में जो हुआ, वह तो गांधी ने ही किया। इतिहास ने जैसे गांधी को अपना भवितव्य ठेके पर सौंप दिया था। मोहनदास करमचंद गांधी के शरीर से बैरिस्टरी के वस्त्र उतरते गए। अन्ततः चर्चिल के जुमले में वे ‘नंगे फकीर‘ बन गए। देह के अनावृत्त होने के बाद आत्मा के दरवाजे खुलते गए। गांधी भारत की आत्मा बन गए। आत्मा दर्पण की तरह होती है। इसलिए गांधी की आत्मा में देश ने अपना चेहरा देखना शुरू किया। देश को लगा कि उसकी तो महान विरासत है। गौरवमय अतीत है। संघर्ष की अकूत सम्भावना है। उसने गांधी को महात्मा मान लिया। उसके जरिए अपने वजूद को संवारने के प्रति संकल्पित हो उठा। गांधी सजावटी किस्म के स्वैच्छिक संगठनों का सरगना नहीं हो सके। लोक आंदोलनों के सुयश थे। 

मोह कहता है कि गांधी का जन्म इतिहास की विसंगति, संयोग या सद्भावनाजन्य दुर्घटना है। मनुष्यता के दीर्घ इतिहास में महापुरुषों के समानांतर, अनुपूरक या परिपूरक भी होते रहे हैं। बापू को समझने अन्य ऐतिहासिक व्यक्तित्व से तुलना की जरूरत नहीं होती। गांधी व्यापक परिवेश हैं। ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों में पसरे पड़े हैं और इन्द्रियातीत भी हैं।  उनकी प्रशंसा करने में अतिशयोक्तियों की ज़रूरत नहीं पड़ती। ऐसा जतन हो तो उनको समझने की कशिश है। गांधी की राजनीति को खारिज कर दिया जाए। अक्षर जिज्ञासु के रूप में भी उन्हें खारिज करें। सत्यशोधक के रूप में भी भूल जाएं। तब भी इतिहास-समीक्षक और न जाने कितने रूपों में उनका लगातार मनुष्य बने रहने का सात्विक हठ भारतीय अस्तित्व की धुरी पर अप्रतिहत है। मौज़ूदा वक्त गांधी को सचेतन भूलने का इरादा लिए हुए है। फिर भी गांधी कौंध की तरह हैं। उनकी उपस्थिति अहसास की तरह है। उनके बारे में सोचना खुद को समझने की तरह है।

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(गांधीवादी लेखक कनक तिवारी रायपुर में रहते हैं।  छत्‍तीसगढ़ के महाधिवक्‍ता भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।