( सुसंस्कृति परिहार वरिष्ठ लेखिका हैं। संप्रति मध्यप्रदेश के दमोह में रहकर स्वतंत्र लेखन।)
नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।
सुसंस्कृति परिहार, भोपाल:
बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, उत्तरी बंगाल, नेपाल के तराई क्षेत्र में मूलतः यह छठ पर्व मनाया जाता है लेकिन नौकरियों की वजह और काम-धंधे की तलाश में जब यहां के लोग बाहर के राज्यों में पहुंचे तो यह लगभग पूरे देश का पर्व बन गया। ठीक वैसे ही जैसे बंगाल की दुर्गा पूजा या महाराष्ट्र का गणेशोत्सव अब देश के प्रमुख पर्व हैं। लेकिन छठ पर्व, छठ या षष्ठी पूजा जो कार्तिक शुक्ल पक्ष के षष्ठी को मनाया जाने वाला पर्व है। बिल्कुल अनूठा और विशिष्ट पर्व है जिसमें पूजन कराने पंडित जी की ज़रूरत नहीं होती। पारंपरिक तौर पर चली आ रही पद्धतियों का अनुकरण होता है। इसमें ऊंच नीच या जाति-पाति का कोई बंधन नहीं इसे सब करते हैं आजकल मुस्लिम, बंगाली, पंजाबी महिलाएं भी इस पर्व को श्रद्धा पूर्वक मनाने लगीं हैं। इसकी दूसरी खासियत ये है कि इसमें किसी भगवान की मूर्ति की पूजा नहीं होती। छठ पूजा तो सूर्य, उषा, प्रकृति, जल, वायु , भूमि और काल्पनिक बहन छठी मइया को समर्पित है। छठी मैय्या को छोड़ दें तो प्रकृति के आधारभूत पंच तत्व इसमें शामिल हैं। हो सकता है सूर्य की प्रभाती रश्मियां सूर्य की बहिन मान ली गईं हों। जिनके ज़रिए धरा पर जीवन है और इसके साथ ही साथ उपभोग की तमाम सामग्रियां है जो इसी प्रकृति ने दी हुई हैं। इसी प्रकृति के पंच तत्त्वों से निर्मित तमाम जीवन है। यहीं प्रकृति उसे सुरक्षित रखती है। इसलिए इस अवसर पर स्वस्थ और दीर्घायु जीवन की कामना की जाती है। वे तमाम फल और जो प्रकृति पैदा करती है वह प्रसाद में शामिल कर कायनात का धन्यवाद किया जाता है।
लेकिन सबसे उम्दा बात इस पूजा की यह है कि इसमें पहले डूबते सूर्य की पूजा का विधान है वह अति श्रेष्ठ है और इंसानी फितरत के लिए एक सबक भी है। क्योंकि समाज में आज उसी व्यक्ति का सम्मान होता है जो उग रहा है यानि आगे बढ़ रहा है ऊंचाई पर है दूसरे शब्दों में कहें जो धन सम्पदा से सम्पन्न हैं। लेकिन जो सब कुछ करके अब डूब रहा है कृषकाय है, जर्जर है आर्थिक रूप से कमज़ोर है उसकी ओर कोई ध्यान नहीं देता । सूर्योपासना बहुतेरे लोग करते हैं उगते सूर्य को जल चढ़ाते हैं, सूर्य नमस्कार जैसे कठिन भी योग करते हैं लेकिन डूबते सूरज को कभी भी अर्घ नहीं चढ़ाते। यह पर्व हमारे उपभोक्तावादी समाज को महत्त्वपूर्ण संदेश देता है।
इसके इतिहास के बारे में कई कथाएं प्रचलित हैं। कहा जाता है सतयुग में भगवान राम, द्वापर में कर्ण और पांच पांडवों की पत्नी द्रौपदी ने सूर्य की उपासना की। किंतु ये प्रमाणिक नहीं है लेकिन लोक कथाओं में मौजूद हैं और लोगों को छठ व्रत करने प्रेरित करती हैं। छठ पूजा चूंकि पूरी तरह प्रकृति पूजा से सम्बद्ध है इसमें पुजारी की ज़रूरत नहीं इसलिए कतिपय लोग इसे आदिवासी समाज से भी जोड़कर देखते हैं, जबकि कुछ लोग इसे बुद्धिस्ट दर्शन से जन्मा मानते हैं। कहते हैं कि बुद्ध के सम्यक सम्बोधी के 5 वर्ष बीतने पर पहली बार जब वह अपने गृह राज्य कपिलवस्तु पधारे तब पूरे कपिलवस्तु में दीपदान उत्सव मनाया गया था। कपिलवस्तु में आने के बाद सभी सगे संबंधियों और नगरवासियो से मिलने जुलने के बाद छठे दिन सम्बोधि बुद्ध ने देशना दी और प्रकृति के महत्व को बताया और कहा कि इस संसार के अगर कोई सर्व शक्तिमान और जीवन देने वाला है तो वो प्रकृति ही है।
बुद्ध ने ही बताया कि धरती के इस जीवन का केंद्र भी सूर्य ही है जो जीवन दायनी है हम सबको सदा ही प्रकृति के समभाव में जीना चाहिए। प्रकृति कभी भेद भाव नहीं करती और तब से ही दीपदान उत्सव के छठवें दिन को सूर्य उपासना की जाने लगी। यह छठ पर्व कहा जाने लगा। यह सच भी लगता है क्योंकि बिहार बुद्ध की विहार स्थली है और बुद्ध धर्म की श्रेष्ठता जगजाहिर है। बिहार नामकरण भी बुद्ध के विहार से हुआ। संविधान निर्माता प्रमुख डा०भीम राव अम्बेडकर का वह कथन याद आ रहा है जब उन्होंने हिंदु धर्म में पैदा होने पर दुखी मन से कहा था कि जन्म लेना मेरे बस में नहीं था लेकिन मैं इस धर्म में मरूंगा नहीं। उन्होंने दुनिया के तमाम धर्मों का अध्ययन करने के बाद प्रकृति पूजक बौद्ध धर्म को अपनाया। अशोक जैसे महान सम्राट ने भी इसे अपनाया और दुनिया के देशों तक इसे पहुंचाया। आज बौद्ध धर्म दुनिया का तीसरा बड़ा धर्म है। कुल मिलाकर छठ पर्व अत्यंत महत्वपूर्ण पर्व है। सामाजिक समरसता और सद्भावना की जोत तो जलाता ही है और कर्मकांडियों से भी बचाता है। आज जब पूरी दुनिया जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणामों से गुजर रही है तब प्रकृति प्रेम का यह पर्व पंच तत्वों के प्रति शुकराना का पर्व है। प्रकृति के प्रति निश्छल संवेदनाओं के विस्तार में इसकी महत्ता का प्रचार प्रसार ज़रुरी है। मूल भावना को जानकर यदि हम सब पर्व मनाएं तो प्राकृतिक ख़तरे टाले जा सकते हैं।
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( सुसंस्कृति परिहार वरिष्ठ लेखिका हैं। संप्रति मध्यप्रदेश के दमोह में रहकर स्वतंत्र लेखन।)
नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।