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IRON LADY-2: सर चढ़ कर बोलता रहा इंदिरा की विदेश नीति का जादू

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सुसंस्कृति परिहार, भोपाल:

कहा जाता है आयरन लेडी के नाम से विख्यात इंदिरा गांधी (19 नवंबर 1917-31 अक्टूबर 1984) ने आपातकाल न लगाया होता तो उनके मुकाबले शायद ही कोई नेता होता। हालांकि उनके उम्दा कामों की लंबी फेहरिस्त है, प्रिविपर्स की समाप्ति, बैंकों का राष्ट्रीयकरण, सोवियत रूस से मैत्री, सफल विदेश नीति, अंतरिक्ष में राकेश शर्मा से बात, बांग्लादेश का उदय, सिक्किम को भारत में विलय, कश्मीर में प्रधानमंत्री पद ख़त्म करना प्रमुख हैं। कश्मीर की रानी हब्बा खातून उन्हें बहुत पसंद थी। कश्मीर उनका घर था। कश्मीर के प्रति वे हमेशा सहृदय रहीं।उसी कश्मीर में पिछले वर्षों में जब देश के सांसदों पत्रकारों को वहां जाने की मनाही थी तब वहां एक महिला द्वारा मैनेज कर विदेशी दक्षिण पंथी सांसदों को घुमाया गया और यह जताने की कोशिश हुई कि वहां सब ठीक है। आतंक समाप्त करने की दिशा में भारत अच्छा काम कर रहा है। देश के अंदरूनी मामले को अंतरर्राष्ट्रीय मामला बनाया जा रहा है। यह बेहद चिंताजनक है। कश्मीर आज भी धधक उठता है, बाहर से आने वाले आतंकवाद को 370 हटाने के बाद बराबर देखा जा रहा है। एक पूर्ण राज्य का दर्जा छीनकर वहां तकरीबन 6 साल से विधानसभा चुनाव न कराना कश्मीर के साथ अन्याय है।    

 

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ज्ञातव्य हो आज़ादी के तुरंत बाद जब कबीलाईयों ने भारत पर हमला कर (अधिकृत कश्मीर) मुजफ्फराबाद इलाके को अपने कब्ज़े में ले लिया था तब नेहरू की सेना भी कम थी और वे हमलावर नहीं बनना चाहते थे इसीलिए उन्होंने बड़ी विनम्रता से मामला राष्ट्रसंघ के सुपुर्द कर दिया। राष्ट्रसंघ ने जो फैसला दिया उसने उन्हें हिला दिया। जो जहां है उसी को सीमा मानने नेहरूजी बाध्य हुए। राष्ट्रसंघ बार बार कश्मीरी अवाम के जनमत संग्रह की बात करता रहा लेकिन नेहरू जी इसे टालते रहे क्योंकि वे जानते थे कश्मीर वासी ना तो पाकिस्तान के साथ जाना चाहते थे और न ही भारत के साथ। वे आज़ाद वतन के पक्षधर थे। इसीलिए उसी फार्मूले पर चलते रहे जो महाराजा हरिसिंह के साथ हुआ था। जब इंदिरा जी सत्ता में आई तो उन्होंने अपने पिता की भूल को सुधारा। शिमला समझौता किया। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो के साथ। इसमें उल्लिखित है कि भारत और पाकिस्तान अपने मामले मिलकर निपटायेंगे तथा इसमें किसी दूसरे देश का दख़ल नहीं होगा। 2018 तक इस समझौते पर ठीक-ठाक अमल हुआ पर 2019 अगस्त आते आते यह समझौता दम तोड़ गया। चुनी हुई सरकार की अनुमति की जगह केन्द्र सरकार ने राज्यपाल की अनुशंसा पर महाराजा हरिसिंह के समझौते के साथ छल किया। यह अलोकतांत्रिक है। यह कश्मीरी जनभावना का उल्लंघन है।

 

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अमरीका, चीन और अन्य यूरोपीय देश जो सरकार की वकालत कर रहे हैं वह ठीक है पर उनका हस्तक्षेप ख़तरे से ख़ाली नहीं। राष्ट्रसंघ भी खुलकर चेतावनी दे रहा है। इंदिरा जी ने जो भूल सुधारी थी। हमें सोचना होगा कहीं देश फिर ग़लत रास्ते पर तो नहीं जा रहा है। कश्मीरी अवाम के दर्द को भी समझना होगा। वे अगर आज़ाद हो गये तो उनके साथ चीन, अमेरिका क्या नहीं करेगा सोचकर रूह कांपने लगती है। कश्मीर हमारा है यहां के लोग हमारे हैं हम उनके साथ हैं उनको सिर्फ भारत से ही जुड़ाव है।यह विश्वास कायम करना ही होगा तथा शिमला समझौते को कायम रखना होगा।फारुख अब्दुल्ला जब पाकिस्तान की बात करते हैं तो उन्हें पाकिस्तानी कहा जाता है। वस्तुत: पाकिस्तान के साथ सामंजस्य रखकर ही बात बिगड़ने से बचाई जा सकती है। जो भूल सुधारी थी इंदिरा जी ने वह बेहद महत्वपूर्ण है और उस पर अमल होना चाहिए। 

आइए बात करें इंदिरा जी की पुख्ता विदेश नीति की। उन्होंने 19 जनवरी 1966 में  प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। तब भारत कम अंतराल के बीच चीन और पाकिस्तान से युद्ध कर चुका था। देश की आर्थिक स्थिति बहुत कमजोर थी। इंदिरा जी को पी.एल. 480 के अंतर्गत गेहूं और वित्तीय सहायता की आवश्यकता थी उन्होंने अप्रैल में आर्थिक मदद के लिए अमेरिका की सरकारी यात्रा की। अमेरिका वियतनाम से युद्ध में फंसा था। वियतनाम गरीब मुल्क होते हुए भी अमेरिकन शक्ति का डट कर मुकाबला कर रहा था। पूरे विश्व में अमेरिका की बदनामी हो रही थी। अमेरिकन राष्ट्रपति जानसन 35 लाख टन गेहूँ और एक हजार मिलियन डालर की सहायता के बदले इंदिरा जी से अपने पक्ष में स्टेटमेंट दिलवाना चाहते थे कि अमेरिका का वियतनाम में दखल उचित है। राष्ट्रपति को विश्वास था भारत सरकार मजबूर है, इंदिराजी मजबूरी में उनके पक्ष में स्टेटमेंट दे देंगी। इंदिरा जी ने राष्ट्रपति जानसन की बात नहीं मानी अमेरिकन राष्ट्रपति ने भी मदद से हाथ खीँच लिया। इंदिरा जी ने जुलाई 1966 में रूस की यात्रा की रूस के साथ उन्होंने अमेरिका की वियतनाम सम्बन्धी नीति की आलोचना की और स्पष्ट तौर पर ये कहा कि अमेरिका को अपनी साम्राज्यवादी नीति पर अंकुश लगा कर वियतनाम से अपनी सेनायें हटा लेनी चाहिए। इंदिरा जी का सोवियत रूस की तरफ मित्रता का हाथ बढ़ाना कूटनीतिक निर्णय था। रूस भी भारत जैसे विशाल देश से मित्रता में वृध्दि कर खुश हुआ।

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चेकोस्लोवाकिया वार्सा पैक्ट का मेम्बर देश था वहाँ के राष्ट्राध्यक्ष दुबचेक सुधारों के समर्थक थे वह कम्युनिज्म के शिकंजे से बाहर निकलना चाहते थे लेकिन शिकंजे को किसी भी तरह की ढील न देते हुए 21 अगस्त 1968 को सोवियत रूस ने वार्सा पैक्ट के मेंबर कम्युनिस्ट गुट के साथ अपने टैंक चेकोस्लोवाकिया की राजधानी प्राग में उतार दिये। सुरक्षा परिषद की आपात कालीन बैठक बुलाई गई तथा संयुक्त राष्ट्र जरनल असेम्बली में सोवियत संघ के विरुद्ध प्रस्ताव पास हुआ। सोवियत संघ ने प्रस्ताव के विरोध में वीटो का प्रयोग किया इस समय इंदिरा जी ने जिन्हें गूंगी गुडिया कहा गया था उन्होंने एक महत्व पूर्ण लिया इस प्रस्ताव पर बहस में हिस्सा नहीं लिया, तटस्थ रहीं। इंदिराजी ने नेहरु जी के समय से चलने वाली तटस्थता की नीति को अपनाया दोनों सुपर पावर की अंतर्राष्ट्रीय राजनीति से अपने आप को अलग रखा तथा पंचशील के सिद्धांत को मान्यता दी। नेहरु जी को १९६२ चीन के साथ युद्ध के समय अमेरिकन मदद लेनी पड़ी थी, राष्ट्रपति केनेडी उनके अच्छे मित्र थे। लेकिन इंदिरा जी को बंगलादेश के निर्माण के लिए सोवियत यूनियन की तरफ झुकना पड़ा। पाकिस्तान में होने वाले चुनाव में मुजीब-उर-रहमान की अवामी लीग को बहुमत मिला लेकिन भुट्टो किसी भी तरह सत्ता को हाथ से जाने नहीं दे रहे थे। जिन्हें प्रधान मंत्री के पद पर आसीन होना था, उन्हें जेल में डाल दिया गया, यहीं से पाकिस्तान के विभाजन की नींव पड़ गई।मुजीब-उर-रहमान ने हर नागरिक को बंगलादेश के निर्माण में सहयोग देने का आह्वान किया।

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1971 में पाकिस्तान के राष्ट्रपति जरनल याहिया खान थे। उन्होंने पूर्वी पाकिस्तान के हालात सुधारने की जिम्मेदारी जनरल टिक्का खान को सौंपी। 26 मार्च से पूर्वी पाकिस्तान में खूनी संघर्ष हुआ स्त्रियों तक को नहीं बख्शा गया अपने ही मुस्लिम भाईयों बहनों पर ऐसा जुल्म हुआ जिसके आगे मानवता भी शर्मा जाये। जीवन की रक्षा के लिए भारत में शरणार्थी आने लगे जिनकी हर सुविधा का ध्यान रख कर उनके लिए टेंट लगवाये गये। एक करोड़ के लगभग लोगों ने शरण ली जिससे भारत की इकोनोमी प्रभावित होने लगी। इंदिरा ने कुशल कूटनीतिज्ञ की भाँति विश्व का ध्यान भारत की और खींचने के लिए राष्ट्राध्य्क्षों के सामने रिफ्यूजियों की समस्या को रखा। पूर्वी पाकिस्तान में मुक्ति वाहिनी सेना का गठन किया गया जिसके सदस्य आधिकतर बंगलादेश का बौद्धिक वर्ग और छात्र थे जिन्होंने भारतीय सेना की मदद से अपनी भूमि पर पाकिस्तानी सेना से संघर्ष किया अंत में पाकिस्तानी सेना का मनोबल इतना गिर गया कि जनरल नियाजी ने भारतीय सेना के समक्ष आत्म समर्पण कर दिया। पाकिस्तान के मनोबल को बनाये रखने के लिए अमेरिका ने सीधे हस्तक्षेप नहीं किया लेकिन राष्ट्रपति निक्सन जो इंदिरा जी को व्यक्तिगत रूप से पसंद नहीं करते थे, द्वारा सातवाँ जंगी बेड़ा बंगाल की खाड़ी में खड़ा कर दिया गया जिसका रुख भारत की तरफ था। इंदिरा जी विचलित नहीं हुई। वह सोवियत रूस से पहले ही संधि कर चुकी थी, जानती थी कि अमेरिका पूर्वी पाकिस्तान की समस्या में पाकिस्तान का पक्ष ले कर बड़े युद्ध का कारण नहीं बनेगा। अमेरिका वियतनाम में अपनी किरकिरी को अभी नहीं भुला था। 93,000 युद्ध बंदी, जिन्हें अलग कैम्पों में रखा गया उन्हें बंगलादेशियों के कोप से भी बचाना था।

 

 

भुट्टों 20 दिसम्बर को पाकिस्तान के राष्ट्रपति बने। सत्ता सम्भालते ही उन्होंने देश को बचन दिया वह बंगलादेश को फिर से पाकिस्तान में मिला लेंगे। उन्होंने पाकिस्तान के सैन्य अधिकारियों को पराजय का जिम्मेदार बना कर पद से हटा दिया। कई महीने बाद राजनीतिक स्तर के प्रयत्नों के परिणाम स्वरूप जून १९७२ में शिमला में बातचीत शुरू हुई। इस वार्ता में भाग लेने भुट्टो भारत आये उनके साथ उनकी बेटी बेनजीर भुट्टो भी आई थीं। वह काफी चर्चा में रहीं उन्होंने इंदिरा जी से बुआ जी का रिश्ता गांठा। इन दिनों अनेक विषयों पर चर्चा हुई जिसमें बंगलादेश को मान्यता देना भी था। पाकिस्तान के इतनी बड़ी संख्या में युद्ध बंदी होने से भी पाकिस्तान का मनोबल टूट गया था। इस समझौते में भारत को बहुत लाभ नहीं हुआ। हमारे पास पाकिस्तान का काफी भाग था हमें पीछे लौटना पड़ा। हां, समझौते के आखिरी चरण में राष्ट्रपति भुट्टो से एक बात सख्ती से इंदिरा जी ने मनवाई जिसके लिए वह मजबूरी में तैयार हुए। शिमला समझौते के अंतर्गत दोनों देश अपने विवादों का हल आपसी बातचीत से करेंगे कश्मीर समस्या का अंतर्राष्ट्रीयकरण न कर बातचीत से हल निकाला जाएगा।

कुछ इस समझौते की आलोचना करते हुए कहते हैं, हमें जीते प्रदेश लौटाने पड़े आज के युग में हम किसी देश के हिस्से पर कब्जा नहीं कर सकते। पंचशील का सिद्धांत भी यही कहता है। भुट्टो बात बात पर दावा करते थे, घास की रोटी खायेंगे पर कश्मीर ले कर रहेंगे, उनको इंदिरा जी के सामने विनम्र रह कर समझौता करना पड़ा। भारत के आखिरी गवर्नर जनरल माउन्टबेटन ने कहा था बंटा हुआ पकिस्तान एक दूसरे से 1600 किलो मीटर दूरी पर है एक दिन अलग हो कर आजाद मुल्क बन जायेगा, उनकी भविष्यवाणी पूरी हुई। अब भारत को युद्ध के समय पश्चिमी पाकिस्तान और चीन की सीमा पर ही ध्यान देना है। इंदिरा जी ने पूरी सतर्कता के साथ भारत की विदेश नीति को नई दिशा दी। उन्होंने भारत और सोवियत संघ के साथ मित्रता और आपसी सहयोग संधि पर हस्ताक्षर किये जिससे भारत को बंगला देश के निर्माण में बहुत सहारा मिला। पाकिस्तान समझ गया युद्ध से वह भारत को नहीं दबा पायगा। इंदिरा जी गुटनिरपेक्ष देशों को और पास लायी उनसे अपने सम्बन्ध बढाये जिससे संकट के समय सब एक दूसरे का सहारा बन सकें और महाशक्तियो की तरफ न देखे।

Indira Gandhi and Zulfikar Ali Bhutto in Simla, 1972 - The Friday Times -  Naya Daur

 

दिल्ली में सातवें गुटनिरपेक्ष देशों के सम्मेलन में युगोस्लोवाकिया के मार्शल टीटो, मिश्र के नासिर ने भी भाग लिया। विश्व में इंदिरा जी की शोहरत बढ़ी लेकिन अपने देश में उनकी मुश्किलें कम नहीं थी। उन्हें अनेक उतार चढ़ावों से होकर गुजरना पड़ा। इंदिरा जी पर अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों का परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर करने का बहुत दबाब था। प्रलोभन भी दिए गये। उन्होंने दबाब को न मानते हुए 1974 में पोखरन में परमाणु विस्फोट कर विश्व को चकित कर बता दिया कि देश किसी भी तरह कमजोर नहीं हैं। भारत ने परमाणु संपन्न ताकतों में अपना स्थान दर्ज कराया। चीन स्वयं परमाणु शक्ति सम्पन्न था, उसने भी भारत का विरोध किया। भारत पर प्रतिबन्ध लगाये गये लेकिन जापान के अलावा किसी ने नहीं माना। 

देश हरित क्रान्ति द्वारा अपना पोषण करने में समर्थ था। भारत दक्षिण एशिया में एक शक्ति के रुप में उभरा। अफगानिस्तान में सोवियत हस्तक्षेप का उन्होंने समर्थन नहीं किया। अमेरिका वियतनाम युद्ध में अपनी किरकिरी करवाने के बाद 15 वर्ष तक शांत रहा परन्तु अफगानिस्तान के मामले में पाकिस्तान के साथ मिल कर अफगान विद्रोहियों की मदद की रूस को खाड़ी देशों से दूर रहने की चेतावनी दी। अब युद्ध भारत के दरवाजे पर था। इंदिरा जी उदासीन नहीं थी परन्तु तटस्थ रही न उन्होंने रूस का समर्थन किया न अमेरिकन हस्तक्षेप की निंदा।

 

Yasser Arafat was Indira Gandhi's "rakhi brother" and was inconsolable at  her funeral - The Core Indian

 

फिलिस्तीन के विषय में वह फिलिस्तीन के अलग राष्ट्र की समर्थक थी। उन्होंने उसी नीति को मान्यता दी जिससे राष्ट्रहित सधता था। अंग्रेजों ने मालदीव को आजाद करते समय हिंदमहासागर में डियागो गार्सिया का द्वीप अमेरिका को सौंप दिया था जहां अमेरिकन और यूरोपियन शक्तियों ने अपने अड्डे बना लिये। रूस भी इस क्षेत्र में अपना दखल रखता है। इंदिरा जी ने हिन्द महासागर को शान्ति का क्षेत्र बनाने के लिए सदैव प्रयत्न किया। अब चीन भी इस क्षेत्र को अपने अधिकार क्षेत्र में लाना चाहता है। पाकिस्तान की तरफ से ‘नो वार पैक्ट‘ करने के संदेश आये लेकिन इंदिरा जी ने मना कर दिया।

आज जब हमारा देश चहुंओर शत्रुओं से घिरा है। चीन अपनी सीमाओं को सुरक्षित करने उनके किनारे गांव बसा रहा है। सड़कों और आधुनिक सुविधाओं का जाल फैला रहा है तब हमारी विवादित सीमाओं पर ख़तरा मंडराने लगा है। पाकिस्तान तो अफगानिस्तान और अमेरिका के सहयोग से भारत पर दबाव बढ़ा रहा है। अमेरिका की दोगली नीति का शिकार भारत बन चुका है। तब इंदिरा जी की कुशल विदेश नीति याद आती है। आयरन लेडी इंदिरा ने नेहरू की विदेश नीति को आगे जितना सक्षम बनाया वह धराशाई होने की कगार पर है। आज की हमारी सरकार को विदेश नीति को मजबूती देने इंदिरा जी जैसे ठोस इरादों से प्रेरणा लेनी चाहिए।

आज देश की ख़स्ता हालत देखकर इंदिरा जी जैसी दृढ़ निश्चयी दृष्टि और सफल विदेश नीति बार बार याद आती है। अगर वर्तमान सरकार बिसूरती विदेश नीति को मज़बूत करने इंदिरा जी के राह पर चलने की कोशिश करती है तो वह उनकी पुण्यतिथि पर सच्ची श्रद्धांजलि होगी। हालांकि गांधी नेहरू विरोधी कारपोरेट सरकार से कोई उम्मीद नहीं की जा सकती। ऐसे हालात में तब कांग्रेस की वापसी की कोशिश करना ही सही कदम होगा। आजकल प्रियंका गांधी में इंदिरा जी की छवि देखने वाले उनमें इंदिरा जी जैसे साहस को देखें तो बेहतर होगा। राहुल गांधी का निडर लोगों के साथ आगे बढ़ना मुल्क की दहशतज़दा अवाम के बहुत ज़रूरी संदेश है। इस दौर में निडर और देश को सुदृढ़ बनाने के फ़िक्रमंद साथियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और जुझारू नेताओं की सख्त ज़रुरत है।याद रखें, विदेश नीति यदि सफल होती है तभी देश सम्मानित होता है, हर दृष्टि से मज़बूत भी जैसा नेहरू, इंदिरा गांधी और अटल बिहारी के शासन में था।

 

 

( सुसंस्कृति परिहार वरिष्ठ लेखिका हैं। संप्रति मध्यप्रदेश  के दमोह में रहकर  स्वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।