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संयुक्त राष्ट्र संघ, भारत और जवाहरलाल नेहरु -इनके संबंधों की पड़ताल

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पुष्परंजन, दिल्‍ली:

जी हाँ वध स्थल था पहले, जहाँ संयुक्त राष्ट्र सचिवालय बनाया गया। अब यहाँ मानवता, समानता, विश्व कल्याण की बातें होती हैं। शशि थरूर ने एक किताब के ज़रिये नैरेटिव खड़ा किया कि नेहरू की ग़लती से भारत, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् का स्थायी सदस्य बनते-बनते रह गया. वही शशि थरूर आज कांग्रेस के सांसद हैं। कई सारी विडम्बनाएं हैं संयुक्त राष्ट्र के सन्दर्भ में. आज ही के दिन इस महान संस्था की बुनियाद रखी गयी थी। अमरीका के पश्चिमी  प्रांत सैन फ्रांसिस्को के नगर कैलिफोर्निया में संयुक्त राष्ट्र की बुनियाद  24 अक्टूबर 1945 को रखी गई थी। दुनिया के पचास देशों के प्रतिनिधि वहां इकट्ठे हुए थे, मगर एक अलग चार्टर भी तैयार हुआ, जिस पर पांच देशों अमरीका, ब्रिटेन, फ्रांस, सोवियत संघ और चीन ने हस्ताक्षर कर दिए। उस दिन ही यह स्पष्ट हो चुका था कि इस संस्था में ग्रुप फाइव सर्वाधिक शक्तिशाली देश हैं और संयुक्त राष्ट्र के संचालन में बाकी देशों के मुकाबले इनकी बड़ी भूमिका होगी, इनके फैसले सर्वोपरि होंगे। लेकिन रातभर में इसकी रूपरेखा नहीं रखी गई थी, पूरे सवा पांच साल लगे थे इसकी तैयारी में।

लंदन का सेंट जेम्स पैलेस इसका गवाह है, जहां 12 जून 1941 को ग्रेट ब्रिटेन, कनाडा, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, यूनियन ऑफ साउथ अफ्रीका के अलावा नौ देशों की निर्वासित सरकारों ने एक घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किए थे। उन दिनों लंदन में बेल्जियम, चेकोस्लोवाकिया, ग्रीस, लक्जमबर्ग, नीदरलैंड, नार्वे, पोलैंड, युगोस्लाविया और जनरल द गॉल ऑफ फ्रांस की निर्वासित सरकारें शरणागत थीं। इसके प्रकारांतर 14 अगस्त 1941 को अमरीका के तत्कालीन राष्ट्रपति फ्रेंकलिन डी. रूजवेल्ट, ब्रिटेन के प्रधानमंत्री विन्सटन चर्चिल ने आठ पैराग्राफ वाले कॉमन प्रिंसपल कहे जाने वाले दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए। इसे ‘अटलांटिक हस्ताक्षर’ कहा गया। एक सुरक्षित, बराबरी वाली दुनिया सृजित करने का अहद ‘अटलांटिक हस्ताक्षर’ में किया गया था।

1 जनवरी 1942 को 26 देशों ने एक ऐसे दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए, जिस पर ‘यूनाइटेड नेशंस’ नाम लिखा था। ‘यूनाइटेड नेशंस’ नामकरण करने वाले अमरीकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट थे। यह ध्यान में रखने की बात है कि 1 जनवरी 1942 को यूएन के सबसे पहले दस्तावेज पर हस्ताक्षर करने वाले 26 सदस्य देशों में भारत भी था। उसके बाद के दिनों में ‘सब्सिक्वेंट सिंग्नेचरी’ कहे जाने वाले जिन 21 देशों ने हस्ताक्षर किए, उनमें फ्रांस भी था, जिसे सुरक्षा परिषद की परमानेंट सीट दी गई थी।

 

25 अप्रैल 1945 को याल्टा में यह तय हुआ कि पांच सदस्यीय एक सर्वशक्तिमान बॉडी बने, जिसके वीटो पॉवर से दुनिया की दिशा तय करनी होगी। मगर अफसोस, इस नीति के निर्माता रूजवेल्ट यह सब देखने के वास्ते जीवित नहीं रहे। सैन फ्रांसिस्को सम्मेलन के ठीक 12 दिन पहले, 12 अप्रैल 1945 को रूजवेल्ट की मृत्यु हो गई। नियति इसे ही कहते हैं। मगर रूजवेल्ट जिस अवधारणा की बुनियाद रख गए थे, उस पर अमरीका आगे बढ़ता चला गया। उनके बाद के अमरीकी राष्ट्रपति हैरी एस. ट्रू मैन ने सब कुछ समय पर होने दिया।  

अमरीका आरंभ से ही संयुक्त राष्ट्र का अतिथि देश बनना चाहता था। उस वास्ते 10 दिसंबर 1945 को अमरीकी कांग्रेस में सर्वसम्मत से प्रस्ताव पास कराया गया। उसके बाद जगह की तलाश शुरू हुई। बोस्टन, सैन फ्रांसिस्को, फिलाडेल्फिया इनमें से कोई जगह पसंद नहीं। आखिर में न्यूयार्क शहर से दूर मैनहट्टन आइलैंड पर सबकी निगाहें टिकीं, जहां कसाईघर बने हुए थे। कसाईखाने की उस जमीन की डील न्यूयार्क के फाइनेंसर जॉन डी. रॉकफेलर जूनियर की पहल पर 85 लाख डॉलर में हो पाई। अंत में 14 फरवरी 1946 को लंदन में संयुक्त राष्ट्र महासभा की पहली बैठक हुई, उसी बैठक में तय हुआ कि न्यूयार्क में कसाईखाने वाले जमीन पर संयुक्त राष्ट्र सचिवालय का निर्माण हो।

 

 

इतना कुछ संदर्भ बताने का उद्देश्य शशि थरूर की 2004 में प्रकाशित पुस्तक ‘नेहरू द इन्वेशन ऑफ इंडिया’ पर नए सिरे से बहस करना भी है। शशि थरूर ने अपनी पुस्तक में लिखा था कि यूएन में भारतीय राजनयिकों ने वह फाइल देखी थी, जिसमें नेहरू द्वारा उस पेशकश को अस्वीकार करने का जिक्र था। थरूर के अनुसार, ‘1953 के आसपास भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की परमानेंट सीट देने का प्रस्ताव दिया गया था।’ थरूर का मानना है कि नेहरू ने यूएन की वह सीट ताइवान के बदले चीन को दिए जाने की वकालत की थी। थरूर ने बताया नहीं कि वो कौन भारतीय राजनयिक थे, जिन्होंने नेहरू की उस सीक्रेट फाइल को देखी थी?

 शशि थरूर 1996 से लेकर 9 फरवरी 2007 तक पहले जेनेवा, फिर न्यूयार्क स्थित संयुक्त राष्ट्र में विभिन्न पदों पर रहे। उन्होंने अंडर सेक्रेट्री जनरल जैसे महत्वपूर्ण पद पर रहते इस्तीफा दिया था। थरूर ने कोफी अन्नान के चुनाव प्रचार को संभाला था। ऐसे व्यक्ति की पहुंच हर फाइल तक होना संभव है, फिर नेहरू की उस फाइल की कॉपी, तारीख या संदर्भ एक बंद मुट्ठी की तरह और किसी अनजान से डिप्लोमेट के हवाले से शशि थरूर क्यों बता रहे थे? यूएन के फॉरमेशन की जितनी तारीखें हैं, मालूम नहीं थरूर जैसे वरिष्ठ डिप्लोमेट नजरअंदाज कैसे कर गए? 25 अप्रैल 1945 को याल्टा बैठक के मसौदे, 24 अक्टूबर 1945 को पांच ताकतवर देशों ने संयुक्त राष्ट्र के चार्टर पर अलग से हस्ताक्षर किए थे, ये दो तथ्य हैं। तीसरा, 14 अक्टूबर 1952, जब पहली बार संयुक्त राष्ट्र आमसभा की बैठक हुई थी, क्या उसके बाद भी सुरक्षा परिषद के विस्तार की संभावना थी?

 

 

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थरूर बता रहे थे कि 1953 के आसपास भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की परमानेंट सीट देने का प्रस्ताव दिया गया था। तो उन्हें दिखाना चाहिए था उन दस्तावेजों को। केवल यह बोल देना कि किसी डिप्लोमेट ने देखा था, यह ठीक वैसा ही जुमला है जैसे राह चलते लोग ‘सुना जाता है-बताया जाता है’ जैसे जुमले का इस्तेमाल करते हैं। थरूर से एक सवाल यह भी पूछा जा सकता है कि जब 24 अक्टूबर 1945 को सुरक्षा परिषद के पांच स्थाई सदस्य देश चार्टर पर हस्ताक्षर कर रहे थे, तब क्या भारत एक आजाद देश था, और क्या नेहरू घोषित हो चुके थे प्रधानमंत्री? थरूर ने अपनी पुस्तक में जॉन फॉस्टर डलेस का नाम लिया कि उनके समय यह ‘ऑफर’ नेहरू को दिया गया था। जॉन फॉस्टर डलेस 1953 से 1959 तक अमरीका के विदेश मंत्री थे, तब उस देश के राष्ट्रपति थे आइजन हॉवर। फिलिप जेसप नई दिल्ली में अमरीका के प्रभारी राजदूत (एम्बेसडर एट लार्ज) थे। इन सबों के हवाले से कई सारी दंत कथाएं चर्चा में रहीं, मगर दस्तावेज दिखाने के लिए कोई तैयार नहीं था।

इस पूरे प्रकरण में देश के प्रथम प्रधानमंत्री की प्रतिष्ठा भी दांव पर लगी थी। यह प्रश्‍न नेहरू के पीएम होते हुए भी डॉ. जेएन पारिख ने संसद में उठाया था, फिर 27 सितंबर 1955 को पंडित नेहरू ने संसद में वक्तव्य देते हुए सिरे से नकारा कि भारत के पास सुरक्षा परिषद का स्थाई सदस्य बनाए जाने का कोई प्रस्ताव मिला था। उन्होंने कहा कि इसमें कोई सचाई नहीं है। जो संदर्भ दिए जा रहे हैं, वो संदिग्ध हैं। नेहरू ने संसद में बयान दिया, ‘सुरक्षा परिषद का गठन एक चार्टर पर हस्ताक्षर के आधार पर हुआ था, जिसमें कुछ विशिष्ट देशों को सदस्यता मिली। उसमें बिना किसी संशोधन के उसके विस्तार की कल्पना नहीं की जा सकती।’ यह भी कमाल हुआ कि नेहरू को कटघरे में खड़ा करने वाले शशि थरूर तिरूवनंतपुरम से कांग्रेस के सांसद हैं। राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं।

खैर, नेहरू दोषी थे, नहीं थे? वो अतीत की बात है। उन गलतियों व चूक की कथा गढ़कर नेहरू के नाम पर ठीकरा फोड़ा जा सकता है। बात वर्तमान की होनी चाहिए कि यूएन सुरक्षा परिषद के विस्तार का रास्ता कैसे तैयार हो। ताइवान समेत पूरी दुनिया में 196 स्वतंत्र देश हैं। इनमें से 193 देश यून के सदस्य हैं। यह बात अरसे से उठाई जा रही है कि केवल चीन, अमरीका, फ्रांस, ब्रिटेन और रूस को वीटो का अधिकार क्यों हो? संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) की पांच स्थाई सीटों में अफ्रीका, दक्षिण अमरीका, ऑस्ट्रेलिया, अंटाकर्टिका से कोई प्रतिनिधित्व नहीं है। यूरेशिया में रूस मिलाकर तीन देश संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के परमानेंट मेंबर हैं और शेष एशिया से केवल एक प्रतिनिधि।

 

1997 से 2006 तक संयुक्त राष्ट्र के महासचिव रहे कोफी अन्नान भी सुरक्षा परिषद में सुधार चाहते थे। 21 मार्च 2005 को कोफी अन्नान ने एक पूरा प्रोजेक्ट रखकर यह उम्मीद जगा दी थी कि सुरक्षा परिषद में स्थाई सीट का विस्तार होगा। उस समय उन्होंने प्लान ए और बी सामने रखा था। कोफी अन्नान के प्लान ए के अनुसार, ‘15 सदस्यीय सुरक्षा परिषद की संख्या 24 कर दी जाए, जिसमें छह नए स्थाई सदस्य और तीन नए नॉन परमानेंट सदस्य देश शामिल किए जाएं।’ प्लान बी में यह था कि आठ नए परमानेंट सदस्य चार-चार वर्षों के वास्ते सुरक्षा परिषद में चुने जाएं। इनके साथ एक नॉन परमानेंट सदस्य हों। मगर, यह मामला किंतु-परंतु में उलझ कर रह गया।

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के ढांचे में बुनियादी परिवर्तन हो, इस वास्ते 2005 में ‘जी-फोर’ की बुनियाद रखी गई थी। उस समय संयुक्त राष्ट्र महासभा में 60वीं वर्षगांठ मनाई जा रही थी, जब जापान, जर्मनी, भारत और ब्राजील के तत्कालीन शासन प्रमुखों ने इस समूह का गठन किया था। ये चारों देश एक-दूसरे की दावेदारी का समर्थन करते हैं। यह समझने की आवश्यकता है कि जर्मनी की दावेदारी रोकने के लिए इटली और स्पेन आड़े आते हैं। ब्राजील को बाधित करने के वास्ते मैक्सिको, कोलंबिया और अर्जेंटीना हैं। दक्षिण कोरिया बिल्कुल नहीं चाहता कि जापान को यह अवसर मिले।

दक्षिण एशिया में पाकिस्तान पांचवां सवार बना हुआ है। जब-जब भारत सुरक्षा परिषद के विस्तार के सवाल को उठाता और खुद के लिए प्रयास करता है, पाकिस्तान को हुड़क होती है कि उसे भी सिक्योरिटी काउंसिल का परमानेंट सदस्य बनने का अवसर मिलना चाहिए। 

मूल मुद्दा वीटो पॉवर का है, जिसका समय-समय पर इस्तेमाल दुनिया में पांच देशों की हैसियत को दर्शाता रहता है। 16 फरवरी 1946 को सोवियत रूस ने लेबनान और सीरिया से सैनिकों को हटाने के सवाल पर सबसे पहले वीटो का इस्तेमाल किया था। उसके बाद से 293 बार वीटो का उपयोग संयुक्त राष्ट्र में हो चुका है। वीटो का सबसे कम इस्तेमाल फ्रांस ने 16 बार, चीन ने 17 बार, ब्रिटेन ने 29 दफा, अमरीका ने 82 बार, और सबसे अधिक रूस ने 117 बार किया है। पांच ताकतवर देश इस वास्ते तैयार नहीं दिखते कि उनके बराबर कोई सत्ता केंद्र संयुक्त राष्ट्र में खड़ा हो। एक थ्योरी यह भी विकसित की जा रही है कि सुरक्षा परिषद में स्थाई सीट का विस्तार कर लें, मगर जो नए सदस्य आएं, उन्हें वीटो पॉवर नहीं मिले। अर्थात आप खाने की मेज पर अवश्य बैठें, मगर दांत के बगैर।

जेनेवा (स्विट्ज़रलैंड ) स्थित संयुक्त राष्ट्र कार्यालय !

ये दुनिया चार नहीं, तीन टांगों पर टिकी है. तीन टांगों पर टिकी शासन व्यवस्था और सरकारें, यह सन्देश दिया है, जेनेवा स्थित संयुक्त राष्ट्र कार्यालय UNOG ने. यह कार्यालय लीग ऑफ़ नेशंस के समय 1929  से 1938  के बीच निर्मित हुआ था। इस तीन टांगों वाली कुर्सी को वास्तुविद डेनियल बेर्सेट ने 1997 में बनाया था।

 

(कई देशी-विदेशी मीडिया  हाउस में काम कर चुके लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं। संंप्रति ईयू-एशिया न्यूज के नई दिल्ली संपादक)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।