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कौन थीं लारा लप्पा गर्ल, जिन्होंने की पांच शादी

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मनोहर महाजन, मुंबई:

आज़ादी के बाद जब भारतीय सिनेमा बंटवारे की त्रासदी से उभरने और सामाजिक वर्जनाओं को तोडऩे की कोशिश कर रहा था, फ़िल्म-मेकर रूप के.शौरी की फ़िल्म "एक थी लड़की" सिनेमाघरों में पहुंची और इसके एक गाने 'लारा लप्पा लारा लप्पा लाई रखदा' ने कश्मीर से कन्याकुमारी तक धूम मचा दी। 

कुछ तो खास बात थी इस गाने में
गीतकार थे अज़ीज़ कश्मीरी और संगीत से विनोद (एरिक रॉबर्ट्स) ने सजाया था। जबकि स्वर लता मंगेशकर,  मो.रफी और जीएम दुर्रानी के थे। 1949 में आई इस फ़िल्म का यह सदाबहार, हमेशजवां, दिलकश नग़मा फिल्म की नायिका 'मीना शौरी' पर फ़िल्माया गया था। जिसका इस फ़िल्म की क़ामयाबी में बड़ा हाथ था। इस फ़िल्म के बाद 'लारा लप्पा गर्ल' और 'भारत के दिल की धड़कन' नामों से नवाज़ी गई मीना शौरी का कॅरियर रॉकेट की रफ्तार से बुलंदी की तरफ़ बढ़ा। 'रोमांस' और 'कॉमेडी' के तड़के वाली  इस फ़िल्म में उनकी आधुनिक नारी की छवि  मुखर होकर सामने आई,जिसे बेहद पसंद किया गया। 72 वर्ष पहले के उनके उसी गाने से उन्हें 'सुपर-स्टारडम' दिया। हालांकि इससे पहले मीना फ़िल्म 'सिकंदर', 'फिर मिलेंगे', 'सहारा', 'पृथ्वी वल्लभ' और 'शहर से दूर' समेत दर्जन भर फ़िल्मों में काम कर चुकी थीं। 

निजी जिंदगी में बोल्ड थीं मीना शौरी
'एक थी लड़की' में मीना शौरी ने जो 'बोल्ड किरदार' अदा किया, निजी ज़िन्दगी में वो इससे ज़्यादा भी  बोल्ड थीं। उनका असली नाम 'ख़ुर्शीद जहां' था। सोलह साल की उम्र में उन्होंने निर्माता-निर्देशक ज़हूर राजा से शादी की, जो कुछ महीनों बाद टूट गई। अभिनेता अल नासिर से दूसरी शादी भी अधिक दिन नहीं चली, तो उन्होंने फ़िल्म-मेकर: रूप के.शौरी से शादी कर ली। यह रिश्ता ठीक-ठाक चल रहा था और उनको फिल्में भी लगातार मिल रही थीं। लेकिन 1956 में वे अचानक पाकिस्तान चली गईं।  रूप के.शौरी से भी रिश्ता टूट गया। बतौर अभिनेत्री पाकिस्तान में भी उनका सिक्का चल निकला। वहां उन्होंने दो और शादियां कीं। पहले की शादियों की तरह ये भी  टिक नहीं पाईं। ढलती उम्र के साथ पाकिस्तानी फ़िल्मों में उनकी मांग घटती चली गई। कमाई के रास्ते बंद हुए तो रिश्तेदार भी उनसे दूर हो गए। मीना शौरी को 'लारा लप्पा' की तूफ़ानी कामयाबी ने जो बुलंदी अता की थी, वे उस पर ठहरने का कमाल नहीं दिखा पाईं। उनकी हालत उस कस्तूरी-मृग जैसी थी,जो कस्तूरी की ख़ुशबू अपने भीतर होने के बावजूद इसकी खोज में दर दर भटकता रहता है। पाकिस्तान में उनके अंतिम दिन गुमनामी और बदहाली में गुजरे। लाहौर में 3 सितम्बर 1989 को देहांत के बाद उन्हें दफ़नाने के लिए भी चंदे से रक़म जुटानी पड़ी।फिल्मों की चकाचौंध की यह 'बेरहम हक़ीक़त' है। यह शेर याद आता है:

जब तलक था नाम, काफी रौनकें घर में रहीं
क़ामयाबी क्या गई, रिश्तों का मौसम भी गया।


(मनोहर महाजन शुरुआती दिनों में जबलपुर में थिएटर से जुड़े रहे। फिर 'सांग्स एन्ड ड्रामा डिवीजन' से होते हुए रेडियो सीलोन में एनाउंसर हो गए और वहाँ कई लोकप्रिय कार्यक्रमों का संचालन करते रहे। रेडियो के स्वर्णिम दिनों में आप अपने समकालीन अमीन सयानी की तरह ही लोकप्रिय रहे और उनके साथ भी कई प्रस्तुतियां दीं।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।