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सोचाे ज़रा: पत्रकारिता के शोर के बीच एक पुरानी पत्रिका की कवर स्टोरी

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विनीत कुमार, दिल्ली :

ज़िक्र धर्मयुग पत्रिका के जुलाई 1964 ई. अंक के आवरण कथा का है। जिसे  गिरिराज किशोर ने लिखा था। आवरण कथा है देश के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल की मृत्यु। लेकिन न तो पत्रिका के मुख्य पृष्ठ पर और न हीआवरण कथा के शीर्षक में ही नेहरू, जवाहरलाल या प्रधानमंत्री शब्द लिखा है।शीर्षक भी ऐसा कि जैसे किसी साहित्यिक लेख या संस्मरण के हो। जाहिर है कि जिस समय ये पत्रिका आयी होगी उस दौरान धर्मयुग के पाठक को यह समझने में मुश्किल नहीं हुई होगी कि ये आवरण कथा किस पर है। लेकिन आज यदि हम इससे गुज़रते हैं तो जवाहरलाल नेहरू का नाम खोजने में समय लगता है। आवरण पृ्ष्ठ देखकर तो समझ भी नहीं सकते। धर्मयुग की ऐसी ही पत्रकारिता रही है- अपने पाठकों पर यकीं करो, पत्रकारिता को शोर मत बनने दो. इससे हमारे लिखे-छपे का महत्व ख़त्म हो जाएगा. क्या आज ऐसा संभव है ऐर संपादकों की रीढ बची है कि ऐसा कर सकें ?

 

 

धर्मयुग कोई चंदे से चलनेवाली पत्रिका नहीं रही है। अपने पूरे अंदाज़ और कलेवर से लेकर पैटर्न के स्तर पर व्यावसायिक पत्रिका रही है। इसे भी वही मीडिया संस्थान प्रकाशित करते थे, जो आज पत्रकारिता के नाम पर जमीन पर लोट जा रहे हैं। इस पत्रिका में भी पनामा सिगरेट से लेकर दूसरे तंबाकू के ब्रांड के विज्ञापन छपा करते। यहां भी पत्रिकारिता को लेकर कोई यूटोपिया नहीं रहा है। बावज़ूद इसके वो अपने पाठकों के विवेक पर भरोसा करते, उनका सम्मान करते और शब्दों के महत्व को बचाकर रखते। आज की तरह नहीं कि सबकुछ दिखाने-बताने के नाम पर उसे अपमानित करो और समझदारी का विस्तार क्या, जो बनी-बनायी समझ है, उसे भी इस तरह ध्वस्त कर दो कि वो एक संवेदनशील नागरिक होने की योग्यता खोता चला जाय।

 

मैंने जब गिरिराज किशोर की यह रिपोर्ट पढ़ी तो लगा कि रेडियो पर कोई ख़बर सुन रहा हूं। रेडियो की भाषा चित्रात्मक होती है यानी कि आप जो सुनते हैं, वैसी ही तस्वीर आंखों के सामने उभरने लग जाती है। ऐसा नहीं है कि नेहरू की मौत पर रिपोर्टिग करते हुए गिरिराज किशोर उनके व्यक्तित्व के प्रभाव में नहीं होते, शब्द चयन में वो बहुत साफ़ है लेकिन अपने पाठकों को चाटुकार बनने नहीं देते. उस दौर की पत्रकारिता की वही यही ताक़त रही है।

 

 

(लेखक दिल्ली के एक कॉलेज में प्राध्यापक हैं। मीडिया-विश्लेषक के रूप में मशहूर हैं। इश्क कोई न्यूज नहीं और मंडी में मीडिया उनकी दो चर्चित किताबें हैं।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। सहमति के विवेक के साथ असहमति के साहस का भी हम सम्मान करते हैं।