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जयंती विशेष: असहमत होकर भी दीनदयाल उपाध्याय के ‘एकात्म मानववाद‘ की उपेक्षा नहीं की जा सकती

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कनक तिवारी, रायपुर:

दीनदयाल उपाध्याय (25 सितंबर 1916 -11 फरवरी 1968) का ‘एकात्म मानववाद‘ का फलसफा ईमानदार राजनीतिक बयान बनने की कोशिश करता है। असहमत होकर भी उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। गांधी के 18 सूत्रीय आर्थिक रचनात्मक कार्यक्रम का कोई उल्लेख भी उपाध्याय ने नहीं किया। यह उनका मकसद भी नहीं रहा। गांधी विचार का पार्टी के उद्भव और विकास के लिए बैसाखी की तरह इस्तेमाल कर लिया। विकेन्द्रीकरण, ग्रामीण उद्योग और स्वदेशी को लेकर उनका अप्रोच गांधी का अनुगामी है। जनसंघ और भाजपा भी भारत के भविष्य को उस आधार पर खड़ा करने से मुंह चुराते रहे। उपाध्याय की समझ थी कि संविधान में शामिल धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद से अलग हटकर उन पर केवल शाब्दिक प्रहार नहीं किये जाएं, बल्कि समानांतर वैचारिक फलक बनाकर हिन्दू-समझ की धार्मिक ललक को विकसित किया जाए। 

 

 

‘हिन्द स्वराज‘ की तरह ’एकात्म मानववाद’ के व्याख्यानों में भी पश्चिमी नस्ल की शासन प्रणालियों की तीखी आलोचना है। एकतंत्र, लोकतंत्र, समाजवाद और पूंजीवाद सहित सभी पश्चिमी शासन पद्धतियों के प्रति उपाध्याय तार्किक परिणति तक आते लगते हैं। ठोस विकल्प सुझाने की संभावना एक अज्ञात हत्यारे की वजह से वे साकार नहीं कर पाए।  नैतिकता के अर्थ में दीनदयाल उपाध्याय के लिए चित्ति अर्थात धर्म मूल आंतरिक प्रेरक शक्ति है। धर्म ही भारतीय समाज आचरण करने की तालीम देता है। हालांकि अब लेकिन यह है कि धीरे धीरे पूरी काॅरपोरेट दुनिया में भी सामाजिक उत्तरदायित्वों का ककहरा तोतारटंत की तरह पढ़ा भर जाता है। अपने आर्थिक विचारों की कंटूर रेखाएं दिखाते उपाध्याय ने गांधी के दो प्रमुख आर्थिक कार्यक्रमों स्वदेशी और विकेन्द्रीकरण की साफगोई से चर्चा की है। उन्होंने कहा ‘आज की परिस्थिति में यदि किन्हीं दो शब्दों का प्रयोग का अपनी अर्थव्यवस्था की दिषा के परिवर्तन को बताना हो तो वे हैं-‘विकेन्द्रीकरण‘ और ‘स्वदेशी‘। हम आज जो रचना कर रहे हैं उसमें ‘केन्द्रीकरण‘ जाने अथवा अनजाने में हमारी श्रद्धा का विषय बन गया है। यही हाल ‘स्वदेशी‘ का है।   स्वदेशी की कल्पना बीते युग की तथा प्रतिगामीपन की द्योतक समझी जाती है। विदेशों की हर वस्तु हम बड़े चाव से ले रहे हैं। यह प्रगति का रास्ता नहीं। इससे विकास नहीं होगा। ‘स्वदेशी‘ के भावनात्मक रूप को समझकर हमें उसे सृजन का आधार एवं अवलम्ब बनाना चाहिए।‘ 

‘स्वदेशी‘ और ‘विकेन्द्रीकरण‘ के उल्लेख के कारण समीक्षक उनमें गांधी ढूंढ़ने लगते हैं। उपाध्याय ने मुखर होकर गांधी की तारीफ करने या उन्हें श्रेय देने के बदले अपने सिद्धान्तों को सामाजिक परम्पराओं में ढूंढ़ने की कोशिशें कीं। कई मुद्दों पर उनकी गांधी से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सहमति भी है।          इतिहास, संस्कृति, सभ्यता और हिन्दू धर्म आदि को समझने में गांधी की समझ से दक्षिणपंथी विचारक टालमटोल करते हैं। गांधी ने सबसे पहले कई जनोन्मुखी वैचारिक प्रयोजनों को रेखांकित किया है। उनका नकार या उपेक्षा करने से किसी को कुछ मिलने वाला नहीं है। उपाध्याय को गांधी बीसवीं सदी के तीसरे दशक के घुमावदार मोड़ पर मिलते हैं। इसके बाद दोनों के रास्ते लक्ष्य ढूंढ़ने के लिहाज से अलग अलग हो जाते हैं। गांधी के लिए अब भी सर्वसुलभ होता है कि वे एक साथ शायद अलग अलग मुख मुद्राओं में कांग्रेस और भाजपा के दफ्तरों में टंगे रहें। साथ साथ विधायिकाओं, न्यायपालिकाओं और कार्यपालिकाओं में भी। यह नियति लेकिन दीनदयाल उपाध्याय की नहीं है। वे सुपरिभाषित एकल लक्ष्य के साथ सीमित समर्थकों के प्रेरक नेता की तरह विकसित होते होते आज उस पार्टी के शीर्ष विचारक के रूप में स्थापित हैं जो वोटों की अंकगणित की बढ़ोतरी के कारण केन्द्रमूलक सत्ता में तो है। 

उपाध्याय को जाहिर कारणों से व्यवस्थित राजनीतिक चिन्तन करना कुदरत में नियत भी नहीं था। खुदरा विचारों को एकजाई कर उस पर दूसरों के वैचारिक आग्रहों का पलस्तर चढ़ाए जाने की उनमें ललक है। कुछ बुनियादी घोषणाएं करने से दीनदयाल उपाध्याय ने परहेज़ भी नहीं किया। उन्होंने मोटे तौर पर व्यक्ति और समाज के अंतर्सम्बन्ध, संविधान की असफलताओं, धर्म की दार्शनिक बारीकियों और आज़ाद भारत की आर्थिक नीतियों वगैरह को लेकर कुछ बातें साफगोई से कही हैं। कुछ में गांधी के विचारों की गूंज है। कई कथनों में गांधी की परछाईं है। दीनदयाल उपाध्याय ने ’एकात्म मानववाद’ की भूमिका में गांधी और ‘हिन्द स्वराज‘ का चलताऊ उल्लेख किया। उन्होंने यह तो माना कि मोटे तौर पर कांग्रेस पार्टी, लोकमान्य तिलक के ‘गीता रहस्य‘ और गांधी के ‘हिन्द स्वराज‘ के विचारों में भारत की आज़ादी के बाद की परिस्थितियों और सपनों को युगानुकूल बनाने के संकेत हैं। उन्होंने तत्काल बाद यह भी कहा कि स्वतन्त्रता के पहले किसी भी विचारक ने आज़ादी के बाद के देश के निर्माण का पूरा खाका व्यवस्थित ढंग से नहीं खींचा। 

 

पंडित दीन दयाल उपाध्याय: भारतीय जनसंघ के पूर्व नेता जिन्होंने 'आत्मनिर्भर  भारत' का सपना देखा था – Lok Shakti.in

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक तथा जनसंघ के अध्यक्ष रहे दीनदयाल उपाध्याय ने सुविधा के अनुसार गांधी को लेकर अपनी अनुकूलताओं को परिभाषित करते भी समर्थन या विलोप किया है। उन्होंने समझ लिया था कि देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने के लिए कांग्रेस से गांधी के असर को बेदखल कर नेहरू विचार पर सीधा हमला करना होगा। नेहरू मध्य मार्ग के बांई ओर और गांधी उसके दायीं ओर कांग्रेस की सियासत चलाना चाहते थे। गांधी को भारतीय पूंजीपतियों से उतना परहेज नहीं था। नेहरू इसके बरक्स हेराॅल्ड लास्की के समाजवाद और कुछ हद तक मार्क्सवाद से भी प्रभावित थे। तिलक, गांधी और नेहरू के राजनीतिक वंशजों ने तो कांग्रेस के मूल सांस्कृतिक पाठ्यक्रम को ही खारिज कर दिया। वामपंथी संगठनों का आंदोलन श्रमिक यूनियनों तक केन्द्रित हो गया।              इस तरह संघ परिवार को वह पूरा राजनीतिक स्पेस मिला, जिसमें उनका किसी से मुकाबला नहीं था। उनके आनुशंगिक संगठनों ने काबिले तारीफ काम धीरज के साथ किया। उसका राजनीतिक फायदा वोटों की अंकगणित के रूप में तब्दील होता रहा। 

 

यह तो स्पष्ट है कि कई राजनीतिक और अन्य कारणों से दीनदयाल उपाध्याय ने गांधी के लोकप्रिय यश का साधारणीकरण करते हुए उसे अपनी पार्टी के फैलाव का आधार बनाया। गांधी का जानबूझकर बार बार नाम नहीं लिया। भारतीय जीवन के गहरे प्रतिभागी के रूप में गांधी की भूमिका दक्षिण अफ्रीका से 1915 में लौटकर आने के बाद ही शुरू मानी जा सकती है। राजनीतिक इतिहासकार 1920 में तिलक के अवसान के बाद गांधी युग की शुरुआत मानते हैं। यही वक्त था जब एक ओर गांधी, दूसरी ओर हिन्दू महासभा (और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) के तत्व तथा तीसरी ओर भारतीय कम्युनिस्ट अपनी संभावित राष्ट्रीय भूमिकाओं को लेकर दत्तचित्त थे। इनके समानान्तर उद्दाम देशप्रेम के कारण युवा क्रांतिकारियों का हुजूम भी अनदेखी के लायक नहीं है। ये सभी परस्पर विरोधी अथवा उलझी हुई शक्तियां लगभग एक जैसे मकसद के लिए इतिहास, परंपराओं, दकियानूसी रूढ़ियों, जनआकांक्षाओं, अंतर्राष्ट्रीय दबावों और आधुनिकता के अभिशापों से बाखबर होकर अपनी जुदा जुदा भूमिकाओं को समयसिद्ध करने के प्रयास में जुटी हुई थीं। सबसे व्यापक जनोपयोगी तथा प्रतिनिधि भाषा का व्यापक इस्तेमाल करने के कारण अन्य विचारधाराएं गांधी का तिरस्कार नहीं कर सकती थीं।

(स्‍वामी विवेकानंद के अहम जानकार गांधीवादी लेखक कनक तिवारी रायपुर में रहते हैं।  छत्‍तीसगढ़ के महाधिवक्‍ता भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।