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हरिवंश राय बच्चन की याद: बैर बढ़ाते मंदिर-मस्जिद, मेल कराती मधुशाला

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डाॅ. जंग बहादुर पाण्डेय, रांची:

मुसलमान औ हिंदू हैं दो, 
एक मगर उनका प्याला, 
एक मगर उनका मदिरालय
एक मगर उनकी हाला। 
दोनों रहते एक न जब तक
मंदिर मस्जिद में जाते 
बैर बढ़ाते मंदिर मस्जिद
मेल कराती मधुशाला।। 

मधुशाला की वकालत करने के कारण आलोचकों ने जिन पर विष बुझे बाण बरसाए, इतिहासकारों ने जिसकी उपेक्षा की, पर सामान्य पाठकों और कवि सम्मेलनों के लाखों लाख श्रोताओं ने जिन्हें  जी भर सराहा है; ऐसे इकलौते  महाकवि आधुनिक हिंदी साहित्य में डाॅ. हरिवंश राय बच्चन ही हैं। यदि लोकप्रियता किसी कवि की कसौटी हो सकती है, तो हरिवंश राय बच्चन (27 नवंबर 1907-18 जनवरी 2003) निर्विवाद रूप से हिंदी के लोकप्रिय कवि हैं। 

 

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किसी सरस्वती पुत्र की सुदीर्घ  सारस्वत साधना का आकलन करना आसान कार्य नहीं है, विशेषत: उस सरस्वती पुत्र की साधना का आकलन करना तो और भी कठिन कार्य है, जिसका व्यक्तित्व और कृतित्व बहुआयामी हो, जिसके चिंतन का आकाश बहुत व्यापक हो और जो एक साथ कई भाषाओं में निष्णात हो; ऐसे वाणी साधक का बहिरंग जितना व्यापक होता है अंतरंग उससे कहीं अधिक गहरा। हालावाद के प्रवर्तक महाकवि हरिवंश राय बच्चन ऐसे ही सरस्वती के वरद् पुत्र हैं जो दिखने में जितने साधारण थे, विद्वता एवं प्रतिभा में उतने ही विशिष्ट और श्लिष्ट। उनकी उपलब्धियों के विभिन्न पन्नों को उकेरने  के लिए कई रंगों की आवश्यकता होगी। ऐसी बहुमुखी प्रतिभा के धनी डॉक्टर हरिवंश राय बच्चन का जन्म 27 नवंबर 1907 को प्रयाग के चक मोहल्ले में हुआ था। प्रारंभिक शिक्षा प्रयाग के कायस्थ पाठशाला में हुई और उच्च शिक्षा प्रयाग विश्वविद्यालय में। 1938 में उन्होंने अंग्रेजी में एम.ए.. की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की और वही अंग्रेजी विभाग में प्राध्यापक भी हो गए। पहली पत्नी श्यामा देवी के निधन के बाद सन् 1942 ई0 में उन्होंने सुश्री तेजी सूरी को जीवनसंगिनी के रूप में अपनाकर दूसरी बार नीड़ का निर्माण किया। 1954 ई० में उन्होंने कैंब्रिज विश्वविद्यालय से डब्ल्यू. बी.ईट्स  की काव्य संबंधी गवेषणा पर शोध कर पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की ;फिर कुछ महीने इलाहाबाद विश्वविद्यालय और कुछ महीने आकाशवाणी में रहने के बाद सन् 1955 के अंत में उनकी नियुक्ति भारत सरकार के विदेश मंत्रालय में हिंदी के विशेषज्ञ के रूप में हो गई। सन् 1966 के आरंभ में  राज्यसभा के राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत सदस्य बनाए गए और उनका आकस्मिक निधन 18 जनवरी 2003 को हो गया। उनका रचना संसार बहुत विस्तृत एवं व्यापक है। 

 

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काव्य:
तेरा हार, मधुशाला, मधुबाला, मधुकलश, निशा निमंत्रण, एकांत संगीत, आकुल अंतर, सतरंगिनी,  मिलन यामिनी, प्रणय पत्रिका, हलाहल ,बंगाल का अकाल, सूत की माला ,खादी के फूल, आरती और अंगारे, बुध और नाच घर, त्रिभंगिमा,  चार खेमे चौसठ खुटे, दो चट्टानें, बहुत दिन बीते, कटती प्रतिमाओं की आवाज, उभरते प्रतिमान के रूप, जाल समेटा। 
अनुवाद: 
उमर खय्याम की मधुशाला, 
64 रूसी कविताएं ,मरकत द्वीप का स्वर ,भाषा अपनी भाव पराए, जन गीता।
आलोचना, निबंध और शोध- कवियों में सौम्य संत, नए पुराने झरोखे, डब्ल्यू. वी. इट्स का रहस्यवाद। 
कहानी- प्रारंभिक रचनाएं 3 भाग में। 
आत्मकथा:
क्या भूलूं क्या याद करूं 1969, 
नीड़ का निर्माण फिर 1970, 
बसेरे से दूर 1977, 
दसद्वार से सोपान तक 1985। 

इंग्लैंड से लौटने के बाद बच्चन ने शेक्सपियर के नाटकों के अनुवाद में हाथ लगाया और हिंदी में शेक्सपीरियन रंगमंच की स्थापना की। मैकबेथ और ओथेलो और  हेमलेट के अनुवाद ना केवल पुस्तकाकार प्रकाशित हो चुके हैं बल्कि सफलतापूर्वक रंगमंच पर उतारे भी जा चुके हैं। 64 रूसी कविताएं पर बच्चन जी को सोवियत भूमि का नेहरू पुरस्कार मिला था। दो चट्टानें पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ है। बच्चन का काव्य उनके जीवन का अविकल प्रतिबिंब है, उन्होंने स्वयं लिखा है कि "मैं जीवन की समस्त अनुभूतियों को कविता का विषय मानता हूं।" लेकिन बच्चन का जीवन एक मध्यवर्गीय भावुक तरुण का संघर्षशील जीवन रहा है जिसमें कलियां भी हैं, कांटे भी ,सपनों का सुनहला संसार भी, वर्तमान का दारुण हाहाकार भी ;इसलिए उनकी अनुभूति सामाजिक अनुताप से दूर रहने वाले किसी शीश महल के राजकुमार की अनुभूति नहीं है। बल्कि वह एक ऐसे अंतरंग सहचर की अनुभूति है ,जो जीवन के अग्नि पथ पर अश्रु स्वेद रक्त  से लथपथ आगे बढ़ता रहा है। 


सन् 1935 से लेकर लगभग सन 1955 ई. तक हिंदी के कवि सम्मेलनों पर बच्चन जी का जो एक छत्र आधिपत्य रहा, उसका बहुत अधिक श्रेय लोग उनके सुकंठ गायक को देना चाहते हैं। यह सही है कि बच्चन की पंक्तियां स्वयं कवि के मुखारविंद से सुनी जाने पर कुछ और ही आनंद देती है ,मगर उससे ज्यादा सही है  कि केवल सस्वर पाठ न तो अ कविता को कविता बना सकता है और न मात्र उसी के बल पर हजारों हजार श्रोताओं के साथ गहन रागात्मक सामंजस्य स्थापित किया जा सकता है ।इस लोकप्रियता के अपेक्षाकृत गहरे कारण तत्कालीन सामाजिक राजनीतिक परिस्थितियों के वैषम्य और व्यक्ति मानस की विफलता जनित(frustration,) पीड़ा में निहित है जिनका विश्लेषण  किए बिना बच्चन के काव्य का समुचित मूल्यांकन संभव नहीं है। 

सच कहा जाए तो मधुशाला मध्ययुगीन रूढि वृत्तियों के प्रति भावुक और संवेदनशील अंतः करण का विद्रोह है ।छायावाद में यह विद्रोह अपेक्षाकृत संयत और लाक्षणिक रीति से प्रकट हुआ था। मधुशाला और कुछ परवर्ती कविताओं में बच्चन ने पुरानी धार्मिक सामाजिक मान्यताओं सामंती नैतिकता को खुली चुनौती दी है। एक ओर कवि ने-
कभी नहीं सुन पड़ता
इसने हा छू दी मेरी हाला, 
कभी न कोई कहता उसने
जूठा कर डाला प्याला। 

सभी जाति के लोग यहां पर, साथ बैठकर पीते हैं, 
सौ सुधारकों का करती है,
काम अकेली  मधुशाला। 

लिखकर समाजिक संकीर्णता पर व्यंग्य किया है, तो दूसरी ओर 
मुसलमान और हिंदू हैं दो,
एक मगर उनका प्याला। 
एक मगर उनका मदिरालय
एक मगर उनकी हाला।।
दोनों रहते एक न जब तक
मंदिर मस्जिद में जाते, 
बैर बढ़ाते मस्जिद मंदिर
मेल कराती मधुशाला।। 

इन जैसी अनेक पंक्तियों द्वारा सांप्रदायिक भेदभाव की व्यर्थता और खोखला पन दिखाते हुए एक वर्ग वैषम्यहीन समाज की रचना का स्वप्न देखा है। बच्चन ने अपनी कमजोरियों पर पर्दा नहीं डाला है। उन्होंने तो बड़े साफगोई के साथ लिखा कि:
जो छुपाना जानता तो,
जग मुझे साधु समझता,
शत्रु मेरा बन गया है
छल रहित व्यवहार मेरा। 
हाय कितनी दूर दुनिया,
हाय कितनी क्रूर दुनिया, 
ले चिता की आग कर में,
मांगती सिंदूर दुनिया।। 

कवि की इस निर्भीकता और साफगोई का ही यह परिणाम है कि व्यक्तिगत धरातल पर लिखी जाकर भी बच्चन की ये रचनाएं साधारणीकरण की अशेष समार्थ्य से संवलित हैं। उनकी कविताएं आत्म विस्मृति का आसव नहीं पिलाती बल्कि  दर्द की तीखी अनुभूति जगाकर  जीवन चेतना को उद्दीप्त करती है। 

 

मधुकलश by Harivansh Rai Bachchan


     विकास क्रम की दृष्टि से बच्चन के संपूर्ण काव्य को तीन खंडों में विभक्त किया जा सकता है-
1. तेरा हार से आकुल अंतर तक, 
2. सतरंगी से आरती और अंगारे तक, 
3. बुद्ध और नाथ घर से दो चट्टानें तक। 
वस्तुतः ये तीनों खंड तीन सोपानों की भांति है जो कवि के जीवन क्रम के उतार-चढ़ाव के अनुरूप ही उनके भाव धारा में एक निश्चित परिवर्तन का संकेत करते हैं। बच्चन के कवि जीवन के आरंभिक वर्ष गहरे संघर्ष और अवसाद और आत्म पीड़ा के रहे हैं। इन वर्षों में समाज ही नहीं नियति ने भी कवि पर क्रूरतम प्रहार किए। इसलिए मधुशाला से लेकर आकुल अंतर तक के गीतों में सामाजिक परिस्थितियों की कठोरता नियति की निर्मलता और व्यक्ति की असमर्थता का मार्मिक अंकन मिलेगा ।मानव जीवन इतना क्षणभंगुर है और इसकी नीव इतनी कमजोर है कि हम पल पल  मृत्यु की आशंका से संत्रत रहते हैं। उस पार का अनिश्चय इस पार के सुख को भी भोगने नहीं देता। लोकोक्ति है कि जो डर गया सो मर गया। लेकिन अमरत्व के लिए विषपान अपेक्षित है-
मरण था भय के अंदर व्याप्त, हुआ निर्भय तो विष निस्तत्व। स्वयं हो जाने को है सिद्ध, हलाहल से तेरा अमरत्व।। 
किसी कवि ने ठीक ही कहा है कि-
जीवन में कुछ करना है तो
मन को मारे मत बैठो
आगे आगे चलना है तो
हिम्मत हारे मत बैठो।
चलने वाला मंजिल पाता
बैठा पीछे रहता है।
ठहरा पानी सड़ने लगता
बहता निर्मल होता है।
 पांव मिले चलने की खातिर
पांव पसारे मत बैठो
आगे आगे चलना है तो
हिम्मत हारे मत बैठो।
तेज दौड़ने वाला खरहा
दो पल चलकर हार गया।
धीरे धीरे चलकर कछुआ
देखो बाजी मार गया
चलो कदम से कदम मिलाकर
दूर किनारे मत बैठो
आगे आगे चलना है तो
हिम्मत हारे मत बैठो।
धरती चलती तारे चलते
चांद रात भर चलता है।
किरणों का उपहार बांटने
सूरज रोज निकलता है।
हवा चले महक बिखरे
तुम भी प्यारे बन महको
आगे आगे चलना है तो,
हिम्मत हारे मत बैठो।
गिरकर उठना उठकर चलना
यह क्रम है संसार का,

कर्मवीर को फर्क न पड़ता
किसी जीत या हार का।
सबल और विश्वास में है
अपने दृढ़ आधार का,
जो विष धारण कर सकता है
वह अमृत को पीता है।
ठहरा पानी सड़ने लगता
बहता निर्मल होता है,
चलने वाला मंजिल पाता
बैठा पीछे रहता है। 
   

 

एक ओर बच्चन ने तीब्र जीवन संघर्ष को सूत्र वध करते हुए अग्निपथ शीर्षक कविता में लिखा है-
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ! वृक्ष हों भले खड़े,
हों घने हो बड़े। 
एक पत्र छांह भी
मांग मत, मांग मत, मांग मत
तू न थकेगा कभी, तू न थमेगा कभी ,तू ना मुड़ेगा कभी
कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ
यह महान दृश्य है
चल रहा  मनुष्य है
अश्रु श्वेत रक्त से,
लथपथ, लथपथ,लथपथ।
अग्निपथ! अग्निपथ! अग्निपथ!

तो दूसरी ओर मनुष्य को निर्भीकता का संदेश देकर उसमें आत्म गौरव की ज्योति जगाई है-
प्रार्थना मत कर, मत कर, मत कर। 
युद्ध क्षेत्र में दिखला भुजबल
रहकर अविजित, अविचल,प्रतिपल। 
मनुज पराजय के स्मारक हैं
मठ, मस्जिद, गिरिजाघर। 
प्रार्थना मत कर,मत कर,मत कर
मिला नहीं जो श्वेत बहाकर,
निज लोहू से भींग नहाकर !
वर्जित उसको जिसे ध्यान है,
जग में कहलाए नर। 
प्रार्थना मत कर.....
झुकी हुई अभिमानी गर्दन,
बँधे हाथ नत निष्प्रभ लोचन। 
यह मनुष्य का चित्र नहीं है,
पशु का है रे कायर। 
प्रार्थना मत कर,मत,मत कर।

सन् 1942-43 से बच्चन जी के जीवन का दूसरा दौर आरम्भ हुआ। एकांत-संगीत विषय गायक दूसरी बार नियति को चुनौती देकर घरवारी बना। इसके साथ ही जीवन के आकाश में सतरंगिनी के रंग उभरे, मिलन-यामिनी आई और प्रणय-पत्रिका लिखी गयी।
जिस कवि ने कभी-
ले चिता की राख कर में,
माँगती सिन्दूर दुनिया। 
आज मुझसे दूर दुनिया.... 

की करुण रागिनी गाई थी, उसी ने जीवन के नवीन उल्लास का अभिनन्दन करते हुए लिखा है कि -
भूल तू जा अब गीत पुराने औ गाथा पुरानी। 
भूल जा अब दुखों का राग, दुर्दिन की कहानी।। 
ले नया जीवन, नई झनकार - वीणा बोलती है। 

का सुरीला सरगम बांधा। मिलन-यामिनी और प्रणय पत्रिका के मादक प्रेम गीत, निराशा और विषाद के अमा पर आशा और आहलाद की पूर्णिमा की विजय के उद्गार हैं। ठीक जिस प्रकार बच्चन अपनी पिछली रचनाओं में वेदना के महासागर में गोते लगा रहे थे, उसी प्रकार इन रचनाओं में मिलन सुख के मधु वर्षा में भीग कर भारी हो उठे हैं ।दुख में जो आत्म विस्तार और सहानुभूति का विशिष्ट गुण होता है वह सुख में प्रायः नहीं होता। 
इस काल में बच्चन ने अपने व्यक्तित्व की परिधि से बाहर निकलकर योग जीवन की ओर भी दृष्टिपात किया है, जिसका फल है बंगाल का अकाल और सूत की माला या खादी के फूल। 

बच्चन के काव्य विकास का तीसरा चरण बुद्व और नाच घर से दो चट्टानें तक प्रसरित है ।बुद्ध और नाच घर बच्चन के काव्य की एक सर्वथा नवीन भंगिमा है, केवल शैली शिल्प की दृष्टि से ही नहीं, अनुभूति की दृष्टि से भी। यों मुक्त छंद का प्रयोग बच्चन इससे पहले बंगाल का काल में भी कर चुके थे, पर बुद्ध और नाच घर में शिल्प की प्रौढता के साथ दृष्टिकोण भी बदला हुआ है मुक्त छंद में लिखित होने के बावजूद बंगाल का काल में आवेश तत्व की प्रधानता है, जो रोमानी कविता का गुण है ।बच्चन के नवीनतम काव्य संग्रहों में चार खेमें चौसठ खूंटे और दो चट्टानें की कुछ रचनाओं में भी व्यंग्य की धार काफी तेज है। यद्यपि बीच-बीच में आध्यात्मिकता की मरीचिका जमीन से हटकर आसमान में खूंटे गाड़ने का मोह भी परिलक्षित होता है। लगता है अब विद्रोही पथिक थक कर किसी तीसरे हाथ की तलाश में है। बच्चन के काव्य की एक बहुत बड़ी शक्ति उनकी सहज भावेष्ठित भाषा शैली है। कविवर सुमित्रानंदन पंत ने लिखा है कि बच्चन की भाषा में परंपरा का सौष्ठव है ।वह साहित्यिक होते हुए भी बोलचाल के निकट है। छायावादी कविता की भाषा की तरह वह अलंकृत, सौंदर्य दृप्त, कल्पना पंखी एवं ध्वनिश्लक्षण नहीं है, वह सहज, रस भीनी, भावभीनी, गति द्रवित ,प्रेरणास्पर्शी  अर्थकल्पित, व्यथा मथित,आनंदगंधी भाषा है। बच्चन की गीत भावना उर्दू काव्य चेतना के निकट होने के कारण उसकी शैली में हिंदी उर्दू शब्दों का मिश्रण ध्वनि बोध की दृष्टि से खटकता नहीं है, उसमें एक राग लय साम्य परिलक्षित होता है। ( अभिनव सोपान की भूमिका पृष्ठ 29 )

बच्चन एक जागरूक और क्रियाशील कवि रहे हैं। टी.एस. इलियट ने लिखा है कि जो 25 वर्ष के उम्र के बाद भी कवि बना रहना चाहता है, उसे अपने शिल्प में निरंतर परिवर्तन करते जाना चाहिए ।प्रसन्नता है कि बच्चन ने इस उक्ति को अपनी काव्य साधना द्वारा आस्था सहित चरितार्थ किया है ।उन्होंने अपने व्यक्तित्व का प्रयत्न पूर्वक विकास किया है ।ऊंची सरकारी नौकरी में रहकर भी धूल भरी धरती पर पांव टिकाए रहना और समय-समय पर शासन की असंगतियों की निर्भीक आलोचना करना उनकी कवि सुलभ ईमानदारी और साहस का प्रमाण है उन्होंने हिंदी कविता को सहज प्रवाह पूर्ण और जीवंत भाषा शैली प्रदान की है और गद्य की स्पष्टता को सफलतापूर्वक छंदो के ढाँचे में ढाल दिया है। हिंदी कविता में छायावाद रहस्यवाद की तरह हालावाद की एक नवीन धारा प्रवाहित हुई जो बच्चन की कविता में सिमटी हुई है ।यह नवीन बाद अल्पायु रहा और मधुशाला मधुबाला और मधुकलश तक सिमटा रहा ।इसके बाद हालावाद की खुमारी दूर हो गई। आध्यात्मिक क्लांति को दूर करने के लिए बच्चन ने हाला का आह्वान किया। यह आध्यात्मिक विद्रोह से प्रेरित भोग वाद की हाला थी। बच्चन ने उमर खैय्याम से प्रेरणा लेकर मधुशाला की रचना की। बच्चन की हाला क्या है? उनकी मधुशाला क्या है? उन्हीं के शब्दों में-
भावुकता अंगूर लता से खींच कल्पना की हाला, 
कवि बनकर है साकी आया लेकर कविता का प्याला। 
यह न कभी भी खाली होगा, लाख पीये दो लाख पीये
पाठकगण हैं पीने वाले पुस्तक मेरी मधुशाला।। 

जिस प्रकार  रामचरितमानस के कारण तुलसी, सूरसागर के कारण सूरदास, अपनी साखियों के कारण कबीर,कामायनी के कारण जयशंकर प्रसाद, राम की शक्ति पूजा के कारण निराला, यामा के कारण महादेवी वर्मा, ऋतंवरा के कारण सुमित्रानंदन पंत, भारत भारती एवम् साकेत  के कारण  राष्ट्र कवि मैथिली शरण गुप्त, उर्वशी के कारण राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर साहित्याकाश में देदीप्यमान होकर अमर हो गए; उसी प्रकार डा हरिवंशराय बच्चन अपनी मधुशाला,मधुबाला और मधुकलश के कारण अमर हो गए।

 

(लेखक हिन्दी विभाग, रांची विश्वविद्यालय के अध्यक्ष रह चुके हैं। )

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।