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सीरिया में बदलता अफ़ग़ानिस्तान अशांत रहेगा, इसे उसकी नियति मान लीजिये

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पुष्परंजन, दिल्‍ली:

काबुल में रॉकेट अटैक कल भी हुआ है। अमेरिकन मिलिटरी ने ड्रोन के ज़रिये काबुल एयरपोर्ट पर एक मानव बम को निशाने पर लिया था। अफ़ग़ानिस्तान अशांत रहेगा, इसे उसकी नियति मान लीजिये। और इस बार अफ़ग़ानिस्तान की हिंसक घटनाएं 'तालिबान पार्ट-टू' के काबू भी नहीं रहेगी। इराक-सीरिया की तरह अफ़ग़ानिस्तान भी विभिन्न अतिवादी गुटों का अधिकेंद्र बन चुका है। दहशत की नई इबारत अभी और लिखे जाएंगे।पेंटागन मानता है कि केवल एक मानव बम की वजह से इतनी भयानक तबाही हुई जिसमें 13 अमरीकी सैनिकों समेत 175 लोग मारे गए। अमरीकी रक्षा मुख्यालय के मेजर जनरल विलियम टेलर के अनुसार, ‘गुरुवार को काबुल एयरपोर्ट के बाहर केवल एक विस्फोट हुआ था।’ अमरीकन आर्मी का अंतिम निष्कर्ष है कि इस भयावह कांड को आइसिस ‘खुरासान’ (आईएस-‘के’) ने ही अंजाम दिया था। अब सीधा एक किरदार खलीली अल रहमानी हक्कानी पर आते हैं, जिसने काबुल की जिम्मेदारी का बीड़ा उठाया था। यह ज़िम्मेदारी संदेहास्पद साबित हुई, तो तालिबान ने शनिवार को नए सिरे से सुरक्षा घेरे को मज़बूत किया है।

खलीली अल रहमान हक्कानी वो शख्स है, जिसके सिर पर अमरीका ने 9 फरवरी 2011 को पचास लाख डॉलर का इनाम रखा था। पाकतिया में जन्मा, तालिबान और अल कायदा के संपर्क में रह चुके हक्कानी नेटवर्क का प्रमुख नेता खलीली अल रहमान हक्कानी को क्या समझकर तालिबान नेतृत्व ने अहम जिम्मेदारी सौंपी थी? इस सवाल का उचित उत्तर वही लोग दे सकते हैं। दूसरा उत्तर तुर्की, पाकिस्तान और हंगरी से लेना चाहिए। दोहा की बैठक में तुर्की ने स्वयं यह प्रस्ताव दिया था कि अमरीकी फोर्स के जाने के बाद काबुल स्थित हामिद करजई इंटरनेशनल एयरपोर्ट की चौकसी हम कर सकते हैं। तुर्की के राष्ट्रपति रेजेब तैयप एर्दोआन ने पाकिस्तान और हंगरी की मदद लेने की भी पेशकश की थी। पांच किलोमीटर की परिधि में बने इस एयरपोर्ट के गिर्द कई सारे मिलिट्री बेस रहे हैं, जिनकी सुरक्षा में इस भागमभाग से पहले नाटो फोर्स, अमरीकी सेना, इंटरनेशनल सिक्योरिटी असिस्टेंट फोर्स, अफगान एयर फोर्स के जवान लगे हुए थे। इसके अलावा काबुल से 70 किलोमीटर दूर बगराम एयरफील्ड की सुरक्षा करना भी महत्वपूर्ण जवाबदेही थी। दोहा में तालिबान का एक बड़ा धड़ा तुर्की द्वारा सुरक्षा की ऐसी जिम्मेदारी देने के पक्ष में नहीं दिख रहा था। तुर्की की दिलचस्पी अफगानिस्तान में न सिर्फ पाकिस्तान और कश्मीर की वजह से रही है, बल्कि वह शिन्चियांग में भी अपने कार्ड लंबे समय से खेल रहा था। शिन्चियांग में चीनी उत्पीड़न के विरुद्ध सबसे अधिक आवाज तुर्की ने उठाई थी।

 

तुर्की में कोई 45 हजार उईगुर मुसलमान रहते हैं, इनके पूर्वज 1952 में तुर्की आए, जब इन्हें शरण देने की अनुमति अंकारा से मिली थी। नई पीढ़ी ने अब भी बेटी-रोटी का रिश्ता शिन्चियांग में रहनेवाले मुस्लिम परिवारों से बनाए रखा है। तुर्की और उईगुर खान-पान, संस्कृति और भाषा के स्तर पर भी एक दूसरे से हमनवा हैं। शिन्चियांग स्वायत्त प्रदेश बने, इस वास्ते तुर्की ने बाकायदा अभियान छेड़ रखा था। 2009 में रेजेब तैयप एर्दोआन ने बयान दिया था कि शिन्चियांग में चीन उईगुर मुसलमानों का नरसंहार कर रहा है। ऐसे बयानों से पेइचिंग और अंकारा के बीच तनातनी बनी रहती थी। शिन्चियांग का नाम बदलकर ‘पूर्वी तुर्किस्तान’ रखा जाय, इसका भी अहद अलगाववादियों ने किया था। तुर्किस्तान इस्लामिक पार्टी (टीआईपी), तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट (टीआईएम), ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट (ईटीआईएम) जैसे संगठन को नैतिक और आर्थिक समर्थन अंकारा दे रहा था। फिर शी ने कुछ ऐसा सुंघाया कि एर्दोआन बदल गए। तुर्की ने 2020 आते-आते कई सारे शिन्चियांग अतिवादियों को चीन के हवाले किया था। बाहरी दुनिया यह मानकर चल रही थी कि तालिबान के काबुल पर फतह के बाद सब कुछ इसी के रिमोट कंट्रोल में है। मगर, ऐसा हुआ नहीं। आज की तारीख में यह देश बहुराष्ट्रीय अतिवादी गुटों का एपीसेंटर बन चुका है। यह तालिबान पार्ट-टू है, जिसकी तस्वीर पार्ट-वन से अलग होगी। कई सारे गुट घमासान करेंगे, इसका अंदेशा बना रहेगा। काबुल एयरपोर्ट पर जो कुछ हुआ, इससे भी भयावह, अकल्पनीय कुछ हो सकता है, इस वास्ते सबको मानसिक रूप से तैयार हो जाना चाहिए। इसे अतिवादियों का अधिकेंद्र बनाने में पाकिस्तान की अहम भूमिका के बारे में कोई इनकार नहीं कर सकता।

 

‘हक्कानी नेटवर्क का जन्मदाता अमरीका रहा है’, बिना किसी किस्म की मिलावट के यह बात साफ़-साफ़ कही जा सकती है। 1980 मेंं इसके संस्थापक जलालुद्दीन हक्कानी को अमरीका ने मदद देनी शुरू की। पाकिस्तान की जमीन पर इन्हें सोवियत सेनाओं से मोर्चा लेने के वास्ते तैयार किया गया। तालिबान को भी हक्कानी की तरह अमेरिका-पाक गठजोड़ ने तैयार किया. 1994 में अपने संस्थापक मुहम्मद उमर की चोबदारी में तालिबान, 'स्टूडेंट मिलिशिया' के रूप में आगे बढ़ा और हक्कानी नेटवर्क की सरपस्ती में उसने अपनी जमीन उर्वर कर ली। हक्कानी पश्तूनों का समूह है, जिनकी जड़ें ईरान के प्रांत दक्षिणी खुरासान के जरदान में हैं। पश्तून और खुरासान कनेक्शन की वजह से हक्कानी नेटवर्क, आइसिस खुरासान और तालिबान ये तीनों एक-दूसरे बगलगीर हुए। तालिबान देवबंदी स्कूल को मानते रहे हैं। पश्तो भाषी तालिबान के संस्थापक और इस्लामिक अमीरात ऑफ अफगानिस्तान के पहले अमीर मुल्ला उमर ने खैबर पख्तूनख्वा स्थित दारूल उलूम हक्कानिया से स्नातक स्तर की पढ़ाई की थी। मुल्ला उमर के अभ्युदय से पहले 1980 के दौर में हिबतुल्ला अखुंदजदा की चर्चा करना तालिबान के इतिहासकार नहीं भूलते। वो कमांडर थे, और सोवियत फोर्स से लड़ चुके थे। हिबतुल्ला अखुंदजदा पर सीआईए, पाक सेना व आईएसआई तीनों की निगाहें थीं। मगर, हिबतुल्ला अखुंदजदा को तालिबान के टॉप तीन में से एक कमांडर बनने का सौभाग्य 36 साल बाद, 2016 में प्राप्त हुआ। मुल्ला उमर की मौत के बाद भी तालिबान की कमान यदि मुल्ला अब्दुल गनी बारादर के हाथों आती है, तो इसे तालिबान की अंदरूनी राजनीति के नुक्ते नजर से देखा जाना चाहिए, जिसमें यूएई-पाकिस्तान समेत दुनिया की कई शक्तियां शामिल हैं।

 

खैबर पख्तूनख्वा के स्थानीय लोग चर्चा करते हैं कि 1994 के दौर में एक महिला ने मुल्ला उमर को कहा था कि आगे बढ़ो अफगानिस्तान की गद्दी तुम्हारा इंतजार कर रही है। बताते हैं कि मुल्ला उमर 1994 में मात्र 50 मदरसा छात्रों को लेकर अपनी मंज़िल की ओर अग्रसर हो गए थे। इनके विरोधियों ने आरोप लगाया कि यह ' बच्चाबाज ' है, और बच्चाबाजी के शौक पूरे करने के वास्ते इनसे संपर्क स्थापित कर रहा है। नवंबर 1994 आते-आते इस्लामिक स्कूल के 12 हजार छात्र तालिबान से जुड़ चुके थे। सितंबर 1995 तक हेरात और कंधहार (कांधार) इनके प्रभाव क्षेत्र में आ चुका था। 4 अप्रैल 1996 को मुल्ला उमर को अमीर अल-मोमिन (विश्वस्तों के कमांडर) के खिताब से इनके शैदाइयों ने नवाज दिया। सितंबर 1996 आते-आते काबुल तालिबान के कब्ज़े  में था, और वही हुआ, जिसकी भविष्यवाणी इस अनजान नुजूमी महिला ने की थी। 1996 से 2001 के दौर में तालिबान अखंड राज करता रहा। इनकी शामत आई 11 सितंबर 2001 को ट्विन टॉवर पर हमले के बाद। शायद, इस बारे में वह भविष्यवक्ता बताना भूल गई थी। आतंक के आकाओं में नजदीकियां बढ़ी हैं, 2001 दिसंबर के बाद। मुल्ला उमर की मौत 23 अप्रैल 2013 को हुई थी। इस बारे में तत्कालीन अफगान सरकार ने 29 जुलाई 2015 को सार्वजनिक रूप से घोषणा की, कि मुल्ला उमर 2013 में मारा जा चुका था। अप्रैल 2015 में अबू बक्र अल बगदादी ने खुद को आइसिस का अमीर घोषित किया और इनका एपीसेंटर इराक और सीरिया हो गया। इस इलाके में शीर्ष तालिबान नेताओं के संपर्क जलालुद्दीन हक्कानी, अल कायदा का पहला 'अमीर' अबू मोसाब अल-जरकाबी, ओसामा बिन लादेन से होता रहा।

काबुल के मेवे अकेले तालिबान क्यों खाए? कल तक जो विषय नेपथ्य में था, इस  विस्फोट के बाद फिर से बहस के केंद्र में है। तालिबान में जैसे मुल्ला उमर के बेटे मुल्ला मोहम्मद याकुब का रसूख है, ठीक इसी पैटर्न पर हक्कानी नेटवर्क वंशवाद की जड़ों को विस्तार देता रहा। 48 साल के सिराजुद्दीन हक्कानी अपने वालिद जलालुद्दीन हक्कानी की मौत के बाद से गद्दी पर बैठे हैं, इनके फॉलोवर इन्हें ‘खलीफा साहब’ बोलते हैं। यानी समय-समय पर अरमान सुलगता है कि अफगानिस्तान में इस्लामी खलीफत के सर्वेसर्वा बनें। 
सिराजुद्दीन हक्कानी के छोटे भाई अनस हक्कानी, एक और भाई था नसीरूद्दीन हक्कानी, चाचा खलीलुर्रहमान हक्कानी यानी पूरा कुनबा आतंकवाद के कारोबार में लगा हुआ है। यही लोग शांति वार्ताओं में शामिल रहे हैं। अनस हक्कानी शायरी भी करते हैं, अफगान कोर्ट ने 2016 में अनस को मृत्युदंड की सजा सुना चुका है। हक़्क़ानी नेटवर्क सरगना सिराजुद्दीन हक्कानी पाकिस्तान में जन्मे या अफगानिस्तान में? इस सवाल के उत्तर को भी मुट्ठी में बंद रखा गया है। पाक इंटेलीजेंस से इनके संबंध 2013 से खराब हुए, जब हक्कानी नेटवर्क के संस्थापक जलालुद्दीन हक्कानी के एक और बेटे नसीरूद्दीन हक्कानी का इन्काउंटर इस्लामाबाद में किया गया।

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उत्तरी वजीरिस्तान का कस्बा गुलाम खान 1980 से हक्कानी नेटवर्क का गढ़ रहा है। यहीं इसके संस्थापक जलालुद्दीन हक्कानी ने मदरसे की स्थापना की थी। कस्बा गुलाम खान से अतिवाद की जड़ों को न तो पाक सेना उखाड़ पायी न ही अमेरिकी फोर्स। ऐसा क्यों हुआ? यह बात इनसे अवश्य पूछा जाना चाहिए कि किस बिना पर दुनिया से अतिवाद को जड़ से मिटाने का नारा ये लोग देते रहे। अफगानिस्तान अतिवाद के त्रिकोण में फंसा हुआ है। तालिबान यदि टॉप पर है, तो सत्ता में हिस्सेदारी हक्कानी नेटवर्क, अल कायदा, आइसिस ‘खुरासान’ और नॉर्दन अलायंस तक को चाहिए। हिस्सेदारी नहीं मिलती है, तो मारकाट मचनी है। जो बात हैरान करने वाली है, वह यह कि प्राचीन काल में कला-संस्कृति का अधिकेंद्र रहे ईरान के खुरासान नगर को कुछ अतिवादियों ने देखते-देखते कुख्यात कर दिया। इस नगर के नाम से दहशत की नई इबारत लिखी जा रही है, जबकि आज की तारीख का शायद ही कोई टॉप अतिवादी खुरासान नगर में जन्मा हो। पाकिस्तान में जन्मा हाफिज सईद खान को 2014 आइसिस ‘खुरासान’ का अमीर घोषित किया गया। इससे पहले हाफिज सईद खान तहरीके तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) का कमांडर रह चुका था। इसकी वजह से टीटीपी के दहशतगर्द बड़ी संख्या में आइसिस ‘खुरासान’ से जुड़े और इराक, सीरिया के युद्ध में लड़ आए। तालिबान कमांडर अब्दुल रउफ खादिम के जुड़ जाने से 'आईएस-के’ को और ताकत मिली। जनवरी 2017 से अब तक आइसिस खुरासान ने अफगानिस्तान और पाकिस्तान में सौ से अधिक हमले किए हैं, ये आगे शांत बैठेंगे, इसमें शक ही है। अमरीका को इस कांड की सूचना थी, तो इन्होंने अपने सैनिकों को मरने क्यों दिया? अमेरिकी दूतावास पिछले मंगलवार से चेतावनी जारी किए जा रहा था! 

(कई देशी-विदेशी मीडिया  हाउस में काम कर चुके लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं। संंप्रति ईयू-एशिया न्यूज के नई दिल्ली संपादक)

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