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विवेक का स्वामी-अंतिम: संघ और स्वामी विवेकानंद का हिंदुत्व कितना पास, कितना दूर 

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कनक तिवारी, रायपुर:

विवेकानन्द के हिन्दू धर्म संबंधी विचारों को संघ परिवार के हिंदुत्व का समानांतर नहीं माना जा सकता। लापरवाह तौर पर देखने से हिंदुइज्म के बुनियादी आग्रहों की आंशिक और सावधानी से कांट छांट की गई अनुकूलता हिंदुत्व संबंधी हुंकारों में है। इसका ठीक उलट साध्य  सही नहीं है कि जो कुछ हिंदुत्व का ऐलान चाहता है, मानो विवेकानन्द ने उस विचार की पूर्व पीठिका रच दी होगी। हिंदू धर्म के प्रति अपने लगातार, प्रयत्नशील और आग्रहपूर्ण सरोकार के कारण स्वाभाविक है विवेकानन्द उससे अपना तादात्म्य सबसे बेहतर वाचालता के भी साथ तो रच लेते हैं। इसलिए हिंदुत्व समर्थक विचार पक्ष मजबूती के साथ यही तर्क करता है कि विवेकानंद में अंततः वैश्विक स्तर पर हिंदू राष्ट्र स्थापित करने की परिकल्पना के ही तो आग्रह रहे हैं। बाकी धर्मों के विचारों का समावेश करना उनका एक पूरक आग्रह भर रहा है। विवेकानन्द को भारत पुत्र घोषित करते प्रतिरोधी विचार पक्ष दृढ़ता के साथ कहता है कि हिन्दू धर्म के सर्वोत्तम संदेशों के आग्रह के साथ साथ बुनियादी तौर पर वे देश निर्माण बल्कि विश्व के लिए भी धर्मों को संबोधित कर रहे थे। वे अपना वैचारिक तादात्म्य कर्म के जीवन में ढूंढते हैं। केवल गाल बजाने में नहीं जो अन्य साधकों का नखरैला लक्षण होता दिखता है।

असावधान पाठ में विवेकानन्द के विचार कई बार संलिष्ट, विरोधाभासी, अस्पष्ट, अमूर्त और वायवी भी होते लगते हैं। उन्होंने आदर्श हिंदू होने के तात्विक आग्रह को जीवित रखा। लेकिन किसी भी कीमत पर हिंसक सामाजिक विग्रह या धर्मों की सिर फुटौव्वल के विचार को पनाह नहीं दी। उनका हिंदू धर्म एक तरह से मिशनरी हिंदू धर्म कहा जाए तो बेहतर होगा। हिंदुत्व की वैचारिकता के पैरोकार विवेकानन्द के दर्शन और साहित्य में से संदर्भ हटाकर पंक्तियां और वाक्य एकत्र कर उनसे नया फलसफा बुनने की अपने तईं कोशिश करते हैं। विवेकानन्द को तो इसके लिए दोष नहीं दिया जा सकता। हाशिए पर पड़े लोगों को विवेकानन्द की मानवता और धर्म के सिद्धांतों के अनुरूप दिखायी जाती स्वयंसेवी संस्थाएं बनाकर अकिंचनों को समझा दिया जा सकता है कि हिंदुत्व की ताकतें विवेकानन्द के उसूलों के तहत ही काम करने को प्रयत्नषील और लगनाषील हैं। विवेकानन्द के उत्तराधिकार या दाय की बात तो शायद हिन्दुत्व के लिए सफल नहीं हो। विवेकानन्द के आंशिक रूप से उत्तराधिकारी बनने में संघ परिवार सफल हुआ है। उसे पूरी तौर पर खारिज भी नहीं किया जा सकता। विवेकानन्द के संपूर्ण राजदर्शन का वैज्ञानिक विवेचन जनसाधारण के लिए जनसाधारण की ही भाषा में प्रस्तुत नहीं किया जाने से भी यह दुविधा की स्थिति बनी है। विवेकानन्द का पूरी तौर पर प्रेषण करना हिंदुस्तान के अकादेमिक जीवन का अभाव है।

कांग्रेस पार्टी के नेताओं और चिंतकों में विवेकानन्द की छवि से सबसे ज्यादा अनुकूलता हासिल करने की इच्छा और कोशिश तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह में रही है। अर्जुन सिंह के कारण रामकृष्ण मिशन बेलूर मठ में डीम्ड विश्वविद्यालय मिशन के प्रशासन के तहत खोला जा सका। उसके लिए केंद्र सरकार से अनुदान भी दिया गया। पश्चिम बंगाल में वामपंथियों की सरकार रहते ऐसा सोचा जाना रामकृष्ण मिशन के लिए लगभग असंभव रहा है। कोशिश भी की गई होगी तो असफल रहे। अर्जुन सिंह ने बाबरी मस्जिद के ढहा दिए जाने के बाद विवेकानन्द के संदेशों के जरिए अनुकूल राजनीतिक परिस्थितियां बनाने के लिए भी कोशिशें की थीं। शिकागो धर्म सम्मेलन की शताब्दी समारोह को आयोजित करने में अर्जुन सिंह ने इस तरह के उपक्रम किए थे जिससे आक्रामक हिंदुत्व के पैरोकार विवेकानन्द को पूरी तौर पर अपने मकसदों के लिए हाइजैक कर उन्हें भविष्य के लिए हिंदू मुस्लिम एकता के संदर्भ में संदिग्ध ऐतिहासिक स्थिति में रोप नहीं दें।

यह बात भी लगभग निर्विवाद है कि भारत के वामपंथियों को अन्य किसी भारतीय विचारक के मुकाबले नेहरू की धर्मनिरपेक्षता तुलनात्मक दृष्टि से पसंद रही है। उन्होंने उसकी मुखालफत भी नहीं की। वे यह भी कहते हैं कि संवैधानिक देशभक्ति में भरोसा रखना चाहिए। संघ परिवार और भाजपा के बड़े नेताओं ने विवेकानन्द को शुरू से अपनी जिज्ञासा के आकर्षण-केंद्र में रखा है। नरेंद्र मोदी, लालकृष्ण आडवाणी, संघ के संस्थापक हेडगेवार, माधव सदाशिव गोलवलकर (गुरुजी) आदि रामकृष्ण मिशन और विवेकानन्द की गतिविधियों के तमाम केंद्रों से सक्रिय रूप से जुडे़ रहे हैं। उन्होंने इस बात का खुलकर काफी प्रचार भी किया है। एक निष्णात हिंदू के रूप में जागृत विवेकानन्द शिकागो धर्म सम्मेलन में शामिल हुए थे। उन्हें अमेरिका का जनजीवन, ईसाइयत, धार्मिक दृष्य छटाएं और नागरिक समाज शुरू में बहुत आकर्षित करता रहा था। इसके बरअक्स उन्होंने भारत में अंधकार युग में जीने वाले गरीबों, अशिक्षितों और मध्यवर्ग के पस्तहिम्मत लोगों वगैरह को देखकर निराशा की बहुत कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी। विश्व हिंदू परिषद और संघ परिवार की पूरी कोशिश है कि जो कुछ विवेकानन्द ने अंततः खुद को संषोधित और समृद्ध करने के बाद कहा विशेषकर अमेरिका और यूरोप में। वह सब एक प्रतिबद्ध एकांगी हिंदू का यश है। वह अब संघ परिवार के फिक्स्ड डिपाॅजिट में हिंदुत्व के हस्ताक्षर से नकद में भुगतान होना चाहिए। विवेकानन्द के जीवन में हिंदू धर्म के सिद्धांतों के आधार पर ईसाइयत का भी मूल्यांकन करना एक थियोरेटिकल कार्य था। वास्तविक जीवन में विवेकानन्द ने धर्म के तहत किए गए वर्णाश्रम और जातिवाद को अंततः खत्म करने की अपील कर गरीबों, पतितों, मुफलिसों के जीवन को उठाने का संकल्प लिया था। उस संकल्प ने भारत बल्कि दुनिया को अनुप्राणित किया। वही विवेकानन्द होने का तात्विक अर्थ है।( अब यह श्रृंखला समाप्त।)

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(गांधीवादी लेखक कनक तिवारी रायपुर में रहते हैं।  छत्‍तीसगढ़ के महाधिवक्‍ता भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।