logo

गर्व सच्चे इश्क़ पर है, हुनर की दावेदारी नहीं- अमृता प्रीतम ने लेखन के विषय में कहा था

12326news.jpg

सुनंदा पराशर, दिल्‍ली:

खुशवंत सिंह ने अमृता प्रीतम से कहा था कि तुम्हारी आत्मकथा क्या है, पूरे जीवन  का लेखा-जोखा एक रसीदी टिकट पर लिखा जा सकता है। अमृता अपने लेखन के विषय में कहती थी, 'माण सच्चे इश्क दा है, हुनर दा दायवा नहीं (गर्व सच्चे इश्क पर है, हुनर की दावेदारी नहीं) अपनी आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ की भूमिका में अमृता प्रीतम लिखती हैं – ‘मेरी सारी रचनाएं, क्या कविता, क्या कहानी, क्या उपन्यास, सब एक नाजायज बच्चे की तरह हैं। मेरी दुनिया की हकीकत ने मेरे मन के सपने से इश्क किया और उसके वर्जित मेल से ये रचनाएं पैदा हुईं। एक नाजायज बच्चे की किस्मत इनकी किस्मत है और इन्होंने सारी उम्र साहित्यिक समाज के माथे के बल भुगते हैं।’ 'साहित्य अकादमी से लेकर ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता के लेखन को हिंदी साहित्य क्षेत्र में लोक साहित्य की श्रेणी में रखा गया यानी पटरी वाला साहित्य। इसका एक बहुत बड़ा कारण है जैसे हिंदी साहित्य में महिला लेखिकाओं को नकार देने की प्रवृत्ति कमतर मानने की प्रवृत्ति का बहुत बड़ा हाथ रहा है। अमृता प्रीतम का जन्म 1919 में गुजरांवाला पंजाब (भारत) में हुआ। आरंभिक जीवन लाहौर में गुजरा और शिक्षा दीक्षा भी वही हुई किशोरावस्था से लिखना शुरू किया कविता, कहानी, आत्मकथा, संस्मरण और लगभग सौ प्रकाशित पुस्तकें महत्त्वपूर्ण रचनाएं विभिन्न देशी विदेशी भाषाओं में अनूदित हुए।1956 में साहित्य अकादमी पुरस्कार, 19 58 में पंजाब सरकार के भाषा विभाग द्वारा पुरस्कृत,1963 में पद्मश्री,1988 में बल्गारिया वैरोव पुरस्कार(अन्तर्राष्ट्रीय) और 1982 में भारत के सर्वोच्च साहित्त्यिक पुरस्कार ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित हुई। उन्हें अपनी पंजाबी कविता अज्ज आखाँ वारिस शाह नूँ के लिए बहुत प्रसिद्धी प्राप्त हुई। इस कविता में 1947 भारत विभाजन के समय पंजाब में हुई दोनों ओर से की गई विभीषिका का अत्यंत दुखद और मार्मिक वर्णन है और यह भारत और पाकिस्तान दोनों देशों में सराही गयी। ये नज़्म अपने-आप में इतिहास है ,कहते हैं कि अमृता ने जब यह कविता लिखी तब  फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ जेल में थे उन्होंने यह कविता वही पढ़ी और जब वह बाहर आए तब उन्होंने देखा कि पाकिस्तान में उस कविता का असर लोगों पर इतना था कि लोग उसे जेब में रखकर चलते थे मानो वह विभाजन की त्रासदी के शिकार हर व्यक्ति  की पीड़ा की मार्मिक अभिव्यक्ति है। बंटवारे के दर्द को बयां करने वाली इस नज़्म ने विभाजित होने से लगातार इनकार किया है। बंटवारे का दर्द सरहद के आर-पार फैला था तो यह नज़्म किसी सरहद की सीमा नहीं रही। इससे भी आगे यह नज़्म बंटवारे की त्रासदी के शिकार लोगों के दर्द की ज़ुबां बनी।

 

 

अमृता प्रीतम की नायिकाएं समाज की जड़ रूढ़िगत परम्पराओं से टकराती हैं और रीति-रिवाजों के नाम पर अपनी इच्छाओं की बलि नहीं देतीं। अमृता प्रीतम स्त्री पात्र जीते जागते दर्द,खुशी प्रेम की अभिव्यक्ति मानव की तरह करते हैं। अमृता प्रीतम अपनी रचनाओं में स्त्री के उस स्वतंत्र व्यक्तित्व को सामने लाने का प्रयास करती हैं जिसे  सामाजिक व्यवस्था ने हजारों वर्षों से संस्कारों और उम्र की  अनेक वर्जनाओं की‌ जंजीर में जकड़ कर रखा था। उनके संस्मरण में एक युवक उनसे कहता है कि महबूब चार क्या चार सौ साल बड़ी भी हो तो क्या? अमृता प्रीतम की नायिकाएं काम-संबंधों में भी पहल करने से नहीं हिचकिचातीं। “धरती, सागर और सीपियाँ” की चेतना, अपने प्रेमी  के साथ संबंधों में पहल करने के लिए स्त्री होने की हिचक नहीं,  “एक थी अनीता” मैं अनीता हो या “नागमणि” उपन्यास में  कुमार के प्रेम में पड़ी अलका खुद को किसी सीमा में नहीं बांधती और और कुमार जो खुद को मानता है कि वह कभी किसी के प्रेम में नहीं बंध सकता अलका के बिना किसी अमर प्रेम का दावा किए अलका से इस तरह बंध जाता है कि हर लड़की उसे अलका की ही याद दिलाती है, ना बंधने की शर्तों पर वह खुद को अलका से दूर करता है लेकिन फिर खुद ही उसका विछोह सहन नहीं कर पाता। कुल मिला कर कहा जा सकता है कि यौन-सम्बन्धों में एक वर्जनाहीन, उन्मुक्त दृष्टि देखने को मिलती है अमृता प्रीतम के नारी पात्रों में स्त्री के अस्तित्वबोध का प्रश्न भी अमृताजी के यहाँ गहराई से उभर कर आया है, समाज की जर्जर, रुढ़िग्रस्त परम्पराओं का विरोध करते हुए वह अपने लिए उस फिज़ा की तलाश करती है जहाँ वह खुल कर सांस ले सके। अमृता के  पात्रों में प्रेम और निजता की तलाश अमृता प्रीतम के सम्पूर्ण जीवन की भी अभिव्यक्ति है, मानो अमृता समाज के उस टैबू को तोड़ती हैं जहां स्त्री को प्रेम करने से सिर्फ इसलिए रोका जाता है कि वह संस्कारों की रूढ़ियों की  तथाकथित मर्यादाओं में बंधी रहे और ऐसा भी नहीं है कि  वर्जनाओ को तोड़ना कोई विद्रोह का हिस्सा है वह जीवन पर अपने अधिकार की सहज चाह है अमृता की कहानियों में वह प्रेम को देह के पार ले जाती है अमृता की नायिकाओं के लिए देह ना तो प्रेम पाने का जरिया है और ना ही उसके लिए स्त्री अपने को दायरों में बांधंती है। 

 

हां यह बात अवश्य दिखती है उनके कथानको में कि प्रेम होने ना होने की जद्दोजहद के आगे जीवन की अन्य महत्वपूर्ण सच्चाईयां बहुत गौण रहती है, परंतु जिस तरह समाज में खुद को साबित करने की जद्दोजहद में मनुष्य के जीवन से प्रेम गायब रहता है उसी तरह  अमृता के लिए प्रेम के आगे बाकी सब गौण हो सकता है। किसी को अमृता प्रीतम के विषयों में लेखन की विविधता का पता भले ही ना हो  लेकिन  लोग उनकी आत्मकथा रसीदी टिकट में वर्णित साहिर और इमरोज के लिए उनके प्रेम कहानी के इर्द-गिर्द ही याद करते हैं और उनके अपने प्रेम के विषय में खुलकर स्वीकार  को ही महत्व दिया जाता है कि कैसे उन्होंने साहिर के छोड़ी हुई सिगरेट के टुकड़ों से सिगरेट को पीना शुरू किया,कैसे वे स्कूटर पर बैठे हुए इमरोज की पीठ पर साहिर लिखा करती थी, अमृता के बारे में सिर्फ इतना ही जानना भी एक टैबू का ही हिस्सा है। जहां एक और यह कहा जाता है कि अमृता प्रीतम की कविताएं ही उनके लेखन  की रचनात्मकता का परिचय देती है कहानियां या उपन्यास में उनका लेखन बहुत कमजोर शिल्प और बयान बाजी है तो क्या लेखक को सिर्फ हमेशा रचनात्मकता और शिल्प के आधार पर ही समझा जाना चाहिए जिन लोगों ने अमृता प्रीतम को पढ़ा है उनको इस बात से फर्क नहीं पड़ता है कि शिल्प कैसा है? या भाषा का विस्तार क्या किस तरह से है ? पाठकों ने अमृता को बस अड्डों रेलवे स्टेशन से खरीद कर  बिना इस चीज की परवाह किए पढ़ा है कि वह लोक साहित्य की कविताएं या पटरी वाली लेखिका हैं या विश्वविद्यालय पुस्तकालय में नहीं पाई जाती उन्हें इस बात से कभी कोई मतलब नहीं रहा ना इससे कि उन्हें ज्ञानपीठ और साहित्य अकादमी पुरस्कार मिले हैं अपने पाठकों के लिए वह पुरस्कार से परें हैं अमृता के पात्रों के माध्यम से पाठकों की रूह में उतर जाने की उस टेक को स्वीकारा है जो उनमें गहरें गड़ जाती है उतरती है पूरी बस जाती है। तो हिंदी आलोचकों ने उन्हें साहित्य अकादमी और ज्ञानपीठ पुरस्कार के बाद भी नकारा है।  और जहां तक इस वाकये का सवाल है जिसका जिक्र अमृता करती है कि वह इमरोज की पीठ पर साहिर लिखा करती थी तो इसमें प्रेम अमृता ने नहीं इमरोज ने किया था साहिर की अमृता से  अपनी पीठ पर साहिर का नाम लिखवाता रहा। 

अमृता ने खुद विभाजन की पीड़ा को जिया था, तो जाहिर है कि लेखिका होने के नाते उनकी पीड़ा उनकी कविताओं के साथ-साथ उपन्यास लेखन में भी 'पिंजर' के माध्यम से दिखी। जहां एक और 'झूठा सच' में  यशपाल  मानवीय समाज की अमानवीय सच्चाईयों को उधेड़ कर रख देते हैं तो मंटो अपनी कहानियों में देश के विभाजन से उत्पन्न आक्रोश असुरक्षा पीड़ा स्वार्थपरता पाशविक प्रवृत्तियों के बीच में जो द्वंद्व है उसे उघाड़ कर रख देते हैं। अमृता के पिंजर की कहानी  संप्रदायों के बीच में फैली नफरतों को औरत के सहारे पीढ़ी दर पीढ़ी किस-किस बहाने से ढोते हैं और इन नफरतों के जहर जीती जागती जीवन से भरपूर सपने देखती औरत के वजूद को किस तरह से एक उस पिंजर के रूप में बदल देते हैं जहां वह खुद पिंजर बन जाती है। अमृता ने औरत के साथ इस हिंसा और यौन हिंसा के प्रश्न को महज विभाजन तक ही सीमित नहीं रखा है , पिंजर में दो कथाएं हैं एक है पारिवारिक दुश्मनी की तो दूसरी विभाजन के बाद की सांप्रदायिकता की शिकार औरतों लड़कियों की दुर्दशा का चित्रण । पिंजर मैं यह दिखाने का प्रयास किया है कि औरतों के साथ होने वाली यौन हिंसा किस तरह से जमीन के कर्ज और वसूली या सत्ता के अधिकार को लेकर पैदा होती है और आपसी दो कबीलो खानदानों  या व्यक्तियों की दुश्मनी का बदला औरतों के अपहरण और उनके साथ बलात्कार के रूप में लिए जाने का सिलसिला पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहता है। अमृता पूरो के चरित्र को इस तरह गढ़तीं हैं जिसमें वेदना भी है और चेतना भी। पूरो के मन में कई तरह के प्रश्न उठते, पर उसे उनका कोई उत्तर नहीं मिलता। उसकी पहली बैशाखी है जब वह मां-बाप के संग नहीं है पूरो सोचती है कि कैसे उसका परिवार इस समय वैशाखी मना रहा होगा।


गांव में नवयुवक वैशाखी के गीत गाते कूदते घूम रहे हैं , उनमें से एक गीत सुनकर वह सोचती है कि क्यों सारे गीतों में सुंदर लड़कियों के ही गुण गाते हैं सारे भजन सच्चे प्रेम का ही वर्णन करते हैं क्या कभी ऐसे गीत भी बनेंगे जिसमें मुझे जैसी लड़कियों के रुदन की कथा लिखी जाएगी क्या कभी ऐसे भजन भी होंगे जिनका कोई भगवान ही ना होगा। देश के विभाजन का असर से उसका गांव भी अछूता नहीं रहता और गांव और आसपास के इलाकों में सांप्रदायिक हिंसा हो रही है, हिंदू वहां से पलायन कर रहे हैं औरतों के साथ यौन हिंसा अपहरण आदि हो रहे हैं , उस स्थिति में पूरो बहुत ही साहस का परिचय देते हुए पति बशीर के साथ मिलकर बहुत सी लड़कियों औरतों को अत्याचारियों से बचाती है जिसमें उसकी भाभी लाजो भी शामिल है उनको शरणार्थी कैंप में पहुंचाती है । जहां लड़कों की वापसी पर मां-बाप, रिश्तेदार ढोल नगाड़े बजते हैं खुशी से नाचते हैं लेकिन अपनी लड़कियों को पहचानने से भी इंकार कर देते हैं। पूरो ऐसी हर लड़की में अपने अतीत को याद करती है। पूरो का भाई उससे कहता है कि पूरो का मंगेतर उसे स्वीकारने के लिए तैयार है मां-बाप भी उसे अपनाना चाहते हैं, वह अपने भाई से कहती है कि चाहे कोई लड़की हिंदू हो या मुसलमान, जो लड़की भी अपने ठिकाने पहुँचती है, समझो कि उसी के साथ पूरो की आत्मा भी ठिकाने पहुँच गई। लाजो अपने घर लौट रही है, समझ लेना कि इसी में पूरो भी लौट आई। मेरे लिए अब यही जगह है।” यह इनकार उसकी मजबूरी नहीं अपने प्रति मान था हालांकि यह भी सच था कि वह कभी बशीर को प्रेम नहीं कर पाती लेकिन बशीर के प्रेम को महसूस जरूर करती है। अमृता ने विभाजन के समय की विभीषिका अपनी आंखों से देखी थी और वह सोचती थीं  कि अब इस धरती पर जो कि मनुष्य के लहू से लथपथ हो गई है, पहले की तरह गेहूं की सुनहरी बालियाँ उत्पन्न होंगी या नहीं….इस धरती पर, जिसके खेतों में मुर्दे पड़े सड़ रहे हैं, अब भी पहले की तरह मकई के भुट्टों में से सुगंध निकलेगी या नहीं…..क्या ये स्त्रियाँ इन पुरुषों के लिए अब भी संतान पैदा करेंगी, जिन पुरुषों ने इन स्त्रियों की अपनी बहनों के साथ ऐसा अत्याचार किया था?” सच तो यह है कि सिर्फ अमृता ही नहीं , सवाल करती स्त्रियां सोचती हुई देह पर अपना अधिकार रख कर के स्वतंत्र अस्तित्व की तलाश करती स्त्रियां समाज को स्वीकार्य नहीं।

 

 

एक बार अमृता ने इमरोज से पूछा था कि क्या तुमने woman with mind'  paint की है..? उत्तर इमरोज के पास भी नहीं था लेकिन इमरोज ने लिखा:

चलते चलते मै रुक गया.. 
अपने भीतर देखा... अपने बाहर देखा...  
जवाब कही नही था...
चारो ओर देखा...
हर दिशा की ओर देखा ..
और.. 
किया इंतजार.... 
पर न कोई आवाज आई....न कही से प्रतिउत्तर...
जवाब तलाशते तलाशते.. 
चल पड़ा और पहुंच गया...
Painting के classic  काल में... 

अमृता के सवाल वाली औरत..!
औरत के अंदर  की सोच..!
सोच के रंग....!
न किसी Painting के रंगो में दिखे.....!
न किसी आर्ट ग्रंथ में मुझे नज़र आए...!!
उस औरत का..
उसकी सोच का जिक्र तलाशा...
हाँ...!
हैरानी हुई देख कर ...!
किसी चित्रकार ने औरत को जिस्म से अधिक ....
न सोचा लगता था...! 
न पेंट किया था...!
सम्पूर्ण औरत जिस्म से कहीं बढ़कर होती है ....!!
सोया जा सकता है औरत के जिस्म के साथ........ 
पर सिर्फ जिस्म के साथ जागा नही जा सकता........!!
अगर कभी चित्रकारों ने.... 
पूर्ण औरत के साथ...
जाग कर देख लिया होता... 
और की और....!
हो गई होती चित्रकला अब तलक...  
माडर्न आर्ट में तो कुछ भी साबुत नही रहा ...
न औरत न मर्द....!
और.. 
न ही कोई सोच.....!
गर कभी मर्द ने भी औरत के साथ... 
जाग कर देख लिया होता... 
बदल गई होती जिन्दगी ......!
हो गई होती जीने योग्य जिंदगी ....!
उसकी और उसकी पीढ़ी की भी......!!

(सुनंदा मूलत: बिहार की हैं। दिल्‍ली में रहकर संप्रति कथा इंडिया से संबद्ध )

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।