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कैसे याद न आएं दुष्‍यंत- मत कहो, आकाश में कुहरा घना है

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आकाश आनंद, रांची: 

मत कहो, आकाश में कुहरा घना है, यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।

अनुभूति को अभिव्यक्ति का वरदान मिलना एक दुर्लभ संयोग है, पर यह संयोग मिला है हिंदी साहित्याकाश के एक ऐसे मजदूर कवि को जिसकी गढ़ी अनगिनत गज़लें प्रेम और क्रांति के बीच पुलिया का निर्माण करती हैंं। ग़ज़लों की शक्ल में अपनी अंतहीन पीड़ा को ढालने वाला एक ऐसा इन्‍क़लाबी शायर जिसने प्रेम पर लिखा तो दुनिया ने गुनगुनाया कि;

मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ
वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ 
 
एक जंगल है तेरी आँखों में 
मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ 

तू किसी रेल-सी गुज़रती है 
मैं  किसी पुल-सा थरथराता हूँ....

 

सन 1974 के दौरान बहुमत की निरंकुशता के बीच जब इसी कवि की कलम विरोध का रुख अख़्तियार करती है तब बच्चे-बच्चे के ज़बान पर कविता प्रस्फ़ुटित होकर विरोध का पर्याय बनकर उभरती है। 

हो गयी है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए  
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए 

आज यह दीवार पर्दों की तरह हिलने लगी  
शर्त  लेकिन थी की ये बुनियाद हिलनी चाहिए 

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए। 

हिंदी कवि और ग़ज़लकार दुष्यंत कुमार त्यागी ( 01 सितंबर 1933-30 दिसंबर 1975) का जन्म बिजनौर जनपद उत्तर प्रदेश के ग्राम राजपुर नवादा में हुआ था। इलाहबाद विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त करने के उपरान्त कुछ दिन आकाशवाणी भोपाल में वे असिस्टेंट प्रोड्यूसर भी रहे। उस समय जब दुष्यंत कुमार साहित्य की दुनिया में कदम रख रहे थे तब भोपाल के दो प्रगतिशील शायर ताज भोपाली और कैफ़ भोपाली का ग़ज़लों की दुनिया में राज हुआ करता था। प्रेम और व्यवस्था से उपजी पीड़ा का जवाब जब लोग अन्य कवियों की कविताओं में ढूंढते तब उन्हें वाकई नहीं मालूम था की उनके हिस्से का जवाब दुष्यंत की ग़ज़लों में मिलने वाला है। बहरहाल, दुष्यंत को जानने की एक सबसे जरूरी शर्त ये है की उनकी ही लिखी ग़ज़लों की सोहबत में कुछ वक़्त गुज़ारी जाये। पर ठहरिए ! इससे पहले की आप उनकी ग़ज़लों तक पहुंचकर खो जाये, ये जान लीजिये की आखिर उनकी गज़लें  दुनिया की नज़रों तक कैसे पहुंची।

 

उनके ग़ज़लकार बनने की कहानी की शुरुआत संगम यानी प्रयागराज से शुरू होती है। प्रयागराज में उनकी दोस्ती कथाकार कमलेश्वर से हुई। ये वो दिन थे जब दुष्यंत कुमार अपनी पीड़ा, प्रेम, विरोध और विचारों को डायरी के पन्नो पर दर्ज कर रहे थे। उन्हीं दिनों एक दिन कमलेश्वर को साथी दुष्यंत की डायरी हाथ लगी। फिर कमलेश्वर कहाँ रुकने वाले थे। दुष्यंत को बिन बताये कमलेश्वर ने उनकी डायरी दिल्ली में स्थित टाइम्स ऑफ़ इंडिया के दफ्तर पहुंचा  दी। फिर वो हुआ जिसका अंदाज़ा दुष्यंत तक को भी नहीं था। टाइम्स ऑफ़ इंडिया  की सारिका नामक पत्रिका में अचानक हीं एक दिन दुष्यंत की दस चुनिंदा गज़लें छपी। शायद यही वह दिन था जब हिंदुस्तान को नयी पीढ़ी का आवामी शायर मिला, जो शब्दों के तिलिस्म से ग़ज़लों को गढ़ने का हुनर बखूबी जनता था। 

शायद यही वजह भी रहा की  उनकी कविताओं और ग़ज़लों के तेवर को देखकर निदा फ़ाज़ली ने एक दफा कहा था की "दुष्यंत की नज़र उनके युग की नई पीढ़ी के ग़ुस्से और नाराज़गी से सजी बनी है. यह ग़ुस्सा और नाराज़गी उस अन्याय और राजनीति के कुकर्मो के ख़िलाफ़ नए तेवरों की आवाज़ थी, जो समाज में मध्यवर्गीय झूठेपन की जगह पिछड़े वर्ग की मेहनत और दया की नुमानंदगी करती है।" इससे पहले दुष्‍यंत की पहचान बहैसियत कवि थी। विष्णुचंद्र शर्मा तब बनारस से कवि नामक लघु पत्रिका निकाला करते थे, उन्‍होंने उसमें दुष्‍यंत की शुरुआती कविताएं प्रकाशित की थीं।