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हिन्दी में शोधपत्र लिखनेवाले पहले शोधार्थी थे रामकथा के मर्मज्ञ फादर कामिल बुल्के

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रांची के युवा पत्रकार दयानंद राय बताते हैं कि फादर कामिल बुल्के (1 सितंबर 1909 – 17 अगस्त 1982) हिन्दी के मर्मज्ञ तो थे ही लीक से हटकर चलनेवाले भी थे। जब भारत में अंग्रेजी में शोधपत्र लिखने का चलन था तो उन्होंने हिन्दी में पहला शोधपत्र लिखकर इस परंपरा को तोड़ दिया। वे हिन्दी में शोधपत्र लिखनेवाले पहले शोधार्थी थे। हिन्दी में शोधपत्र लिखने के लिए फादर कामिल बुल्के ने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से विशेष अनुमति ली थी। उनके बाद ही देश के अन्य हिस्सों में हिन्दी में थीसिस लिखी जाने लगी थी। रामकथा और विकास पर शोध प्रबंध लिखकर उन्हों ने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से डी.फिल. की डिग्री ली थी। उनका शोधग्रंथ रामकथा संबंधी समस्त साहित्य का विश्वकोश है। फादर ने अपना शोधकार्य डॉ. माताप्रसाद गुप्त के निर्देशन में पूरा किया था। आज उनकी हीजयंती है। रांची में ही पढ़ाई कर चुके विनीत कुमार उन्‍हें इस तरह स्‍मरण कर रहे हैं।-संपादक

 

 

विनीत कुमार, दिल्ली :

यह इसी 25 मार्च की बात है। मैं जब इस सफ़ेद प्रतिमा के आगे खड़ा था, ठीक उसी वक़्त अज़ान शुरू हो गई। अज़ान  की आवाज़ पीछे के कर्बला चौक की मस्जिद से आ रही थी लेकिन लग रहा था बग़ल के कैथलिक चर्च से आ रही हो। मैं सामने बने चबूतरे पर बैठकर सुस्ताने लगा। बेल्जियम से आए उस शख़्स के बारे में सोचने लगा जिसे यह देश, हिन्दी और राम में इतनी गहरी दिलचस्पी पैदा हुई कि रामकथा पर पीएच.डी. की, ताउम्र हिन्दी के प्रचार-प्रसार में लगे रहे और यहीं के होकर रह गए। उन्होंने संत ज़ेवियर्स कॉलेज के अंग्रेजीदां माहौल के बीच हिन्दी भाषा एवं साहित्य के पठन-पाठन का कार्य शुरू किया और हज़ारों छात्र इस विषय में ग्रेजुएट होकर निकले. भारत सरकार ने हिन्दी के प्रति गहरे लगाव और काम करते रहने का मूल्यांकन करते हुए उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया। रांची के मनरेसा हाउस के बीचोंबीच डॉ. फ़ादर कामिल बुल्के की आदमक़द प्रतिमा मुझे अपनी ओर खींचती है। ऐसे दौर में जबकि राम को लेकर भक्ति और साधना की बजाय राजनीतिक दांव और दावे का ज़ोर है। कैथलिक चर्च और फ़ादर हाउस के बीचोंबीच ये आदमकद प्रतिमा एक ऐसे शख़्स की याद दिलाती है जिसने राम को लेकर न तो कभी कोई दावा किया और न ही उनके साथ शोर की शक़्ल में कभी नाम जोड़ने की कोशिश की। 

 

 

इलाहाबाद विश्वविद्यालय से रामकथा पर की गयी पीएच.डी. का जो पुस्तकाकार रूप है, उनसे आप एक बार गुज़रते हैं तो समझ सकेंगे कि राम को लेकर उनके भीतर किस धीरोदात्त नायक की छवि रही है। एक ऐसी छवि जिसके केन्द्र में सबका समावेश कर लिए जाने और "विरूद्धों का सामंजस्य( हिन्दी साहित्य के संदर्भ में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्द ) क़ायम करने की अद्भुत क्षमता है. यही कारण है कि डॉ. बुल्के ने रामकथा संबंधी अपने शोध में उस कथा को रेखांकित किया है। जिसके मूल में भारतीय समाज और उसका जनजीवन है। हाड-माँस के उन मनुष्यों की तलाश है जो इस देश की सहजीविता को बेहद सहज ढंग से बरतते हैं। इस रामकथा में न तो राम आक्रामक हैं और न ही उनके नाम पर लोगों के आक्रामक होने की कहीं कोई गुंजाईश बनती है। 

 

इधर हिन्दी-संस्कृत साहित्य से जिस किसी का भी थोड़ा नाता रहा है वो जानते है कि इन भाषाओं को लोकधर्मिता के स्तर पर जोड़ने के लिए किस हद तक प्रयास किए. आज भी डॉ. कामिल बुल्के के अंग्रेज़ी-हिन्दी शब्दकोश के मुक़ाबले बाक़ी दूसरे शब्दकोश बहुत पीछे है. उन्होंने अपने शब्दकोश में अंग्रेज़ी शब्दों का हिन्दी अर्थ उन शब्दों के रूप में दिया है जो महज़ अकादमिक चौखट के बीच से नहीं निकले बल्कि जिनकी लोक-समाज की लंबी ऐतिहासिक यात्रा रही है। इस शब्दकोश से गुज़रने का मतलब होता है कि आप एक भाषा के बहाने भारत की सामाजिक-सांस्कृतिक यात्रा पर हैं। हिन्दी-संस्कृत भाषा एवं साहित्य से नाता रखनेवाले लोगों का इस शख़्स के नाम के आगे सम्मान से माथा अपने आप झुक जाता है। लेकिन इस सम्मान के साथ उनकी बिरादरी उनसे कितना प्रेम करती है और उनके काम पर फ़ख़्र महसूस करती है, इस बात का अंदाज़ा उनकी प्रतिमा के नीचे लगी पट्टी से लगा सकते हैं जहाँ तुलसीदास का दोहा लिखा है- परहित सरिस धरम नहिं भाई.... 

 

क्या कैथलिक चर्च और मनरेसा हाउस( फ़ादर लोगों का निवास स्थान ) के बीच से गुज़रते हुए एक साहित्यिक कृति की महज़ यह पंक्ति भर रह जाती है ? ऐसे दौर में जबकि राम के नाम पर नए-नए शत्रु वर्ग पैदा करने और क़रार दिए जाने की क़वायद चल रही हो, आदमकद प्रतिमा के नीचे लिखी ये पंक्तियाँ इस बात की तरफ इशारा करती है कि राम के नाम पर सबसे ज़्यादा ज़रूरी बात है लोगों की भावनाओं का ख़्याल करना, उसे सुरक्षित रखना.सात समंदर पार दूसरे देश से आए एक शख़्स को राम और उनका ये देश इतना दिलचस्प लगता है कि पूरी ज़िंदगी इसके इर्द-गिर्द लिखते-पढ़ते और सोचते हुए गुजार देता है और दूसरी तरफ हम-आप हैं जो आए दिन राम के नाम पर शक़ के घेरे में डाल दिए जाते हैं. कोई पलटकर पूछनेवाला नहीं है कि क्या बिना इस की बहुलता को समझे और अपनाए राम का साधक हुआ हुआ जा सकता है ? राम के नाम पर दावे करना इतना आसान है क्या ?

 

 

(लेखक दिल्ली के एक कॉलेज में प्राध्यापक हैं। मीडिया-विश्लेषक के रूप में मशहूर हैं। इश्क कोई न्यूज नहीं और मंडी में मीडिया उनकी दो चर्चित किताबें हैं।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। सहमति के विवेक के साथ असहमति के साहस का भी हम सम्मान करते हैं।