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वीर! -7 : सावरकर भारतीय संविधान के कटु आलोचक रहे,कहते थे- इसमें कुछ भी भारतीय नहीं

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गांधीवादी चिंतक डॉ. राजू पाण्डेय की शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक "सावरकर और गांधी" के संपादित अंश हम आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। आज 7 वीं कड़ी। -सं.

डॉ. राजू पांडेय, रायगढ़:

सावरकर 1857 के स्वाधीनता संग्राम के अपने विश्लेषण में परंपरावादी और कट्टर धार्मिक शक्तियों के साथ खड़े नजर आते हैं। वे लिखते हैं- सरकार हिन्दू और मुसलमान धर्मों की बुनियाद को नष्ट करने के लिए एक के बाद एक कानून पारित करना प्रारंभ कर चुकी थी। रेलवे का निर्माण हो चुका था और रेल गाड़ी के डब्बों की रचना इस प्रकार हुई थी कि यह हिंदुओं के जाति संबंधी पूर्वाग्रहों को ठेस पहुंचाता था। जब सावरकर शुद्धि बंदी जैसी रूढ़ियों के उन्मूलन की चर्चा करते हैं तो उनका उद्देश्य अंतर्धार्मिक विवाह को प्रोत्साहन देकर धार्मिक प्रतिबंधों को तोड़ना नहीं है अपितु वे पराजित धार्मिक समुदाय की स्त्रियों से विवाह और बहुपत्नी प्रथा का अवलंबन लेकर विजयी धार्मिक समुदाय की जनसंख्या बढ़ाने की रणनीति को सही ठहरा रहे होते हैं। इसी प्रकार सावरकर के मतानुसार शुद्धि बंदी की कुरीति के कारण बलात धर्मांतरण के शिकार हुए लाखों लाख हिंदुओं की घर वापसी नहीं हो सकी। समुद्र यात्रा बंदी की कुरीति के उन्मूलन की चर्चा सावरकर बार बार करते हैं किंतु उनके मतानुसार इस कुरीति के कारण आर्यों के साम्राज्य का विस्तार और हिन्दू धर्म का प्रसार न हो सका इसलिए यह त्याज्य है।

 

सावरकर स्मृतियों के विरोधी हैं किंतु सभी स्मृतियों के नहीं। मनुस्मृति उनके लिए भारतीय जीवन को संचालित और नियमित करने वाले सिद्धांतों और नियमों का अद्भुत संग्रह है।  अपनी पुस्तक भारतीय इतिहास के छह स्वर्णिम पृष्ठ में भारतीय इतिहास का पांचवां स्वर्णिम पृष्ठ शीर्षक खण्ड के पांचवें अध्याय अत्याचारों का रामबाण उपचार के उप शीर्षक भाष्यकार मेधातिथि में सावरकर लिखते हैं- "उस काल के(सन 850 से 950 ईस्वी सम्वत) लगभग 1000 वर्ष से हिंदुओं की स्मृतियों के जाति-पांति, दया धर्म और छुआछूत के श्रुतियुक्तता का बहाना करने वाले निर्बल और राष्ट्रीय दृष्टि शून्य आचार विचारों ने हमारे हिन्दू समाज में अव्यवस्था मचा रखी थी। उस अधोगति को रोककर निर्बल तथा बुद्धू बने हिन्दू समाज को एक बार फिर से आर्यावर्त का मूल स्वरूप प्राप्त करा देने की महत्वाकांक्षा रखने वाले उस समय के एकमेव भाष्यकार मेधातिथि ही हुए। इसलिए सभी स्मृतियों का मूलाधार मानी जाने वाली मनुस्मृति का ही भाष्य करना उन्होंने उपयुक्त समझा और विशेषकर राजनीतिक संघर्ष के विषय में जो कुछ कहा गया है उसे चाणक्य के निकष पर परखा गया। इस प्रकार एक हाथ में आर्यावर्तियों के मूल की मनुस्मृति और दूसरे हाथ में चाणक्य का साम्राज्यवादी दिग्विजयक्षम अर्थशास्त्र लेकर उस समय के निर्बल मूर्खतापूर्ण अहिंसा धर्म के कारण पंगु बने सभी आचार विचारों को धर्म बाह्य घोषित किया।'

 

"....उसी स्मृति की प्रतिध्वनि पतित पराजित राष्ट्र के राजगण के कानों में पहुंचाने के विचार से उन्होंने शस्त्रवादी, युद्धवादी, साम्राज्यवादी धार्मिक आचरणों के आदेश मनु महाराज की मूल आज्ञाओं के रूप में अपने तेजस्वी भाष्य के रूप में प्रस्तुत किए और अन्य सभी धारणाओं को वेद बाह्य स्मृतयः घोषित कर दिया। ....राजा के कर्त्तव्यों का वर्णन करते हुए उन्होंने स्पष्ट कहा है कि – आर्यावर्त पर म्लेच्छों के चढ़ाई करने से पूर्व ही उन पर आक्रमण कर देना चाहिए। एक बार शत्रु से शत्रु के रूप में टकराव होते ही राजा को फिर दया माया का विचार न करते हुए शत्रु को कुचलकर उसकी चटनी ही बना डालनी चाहिए। परकीय कपटी शत्रु को आवश्यक निमित्त बनाकर उसे कपट से ही मार डालना चाहिए। युद्ध में ढीलापन, भोलापन, सीधापन व बोलचाल की सुसंगति व सभ्यता आदि तथाकथित सद्गुण राष्ट्रनायक के लिए दुर्गुण सिद्ध होते हैं इसलिए राजा के हित में यही है कि वह इनका शिकार न बने। ......मेधातिथि अपने मनुस्मृति के इस भाष्य में स्पष्ट रूप से लिखते हैं कि आर्य धर्म ने यह आज्ञा कभी नहीं दी कि आर्य अपने को आर्यावर्त में ही बन्द कर रखें। इसके विपरीत शास्त्रीय आज्ञाओं का मर्म यह है कि यदि बलशाली राजा आर्यावर्त के बाहर के म्लेच्छ राजाओं पर चढ़ाई करके उन्हें जीत लें और सर्वत्र आर्य धर्म का प्रचार करें तो वे समस्त म्लेच्छ देश भी आर्य देश माने जाएं और उन्हें भी आर्यावर्तीय साम्राज्य में समाविष्ट कर लिया जाए।"

 

सावरकर को न केवल मनुस्मृति प्रिय थी अपितु इसका एक ऐसा पाठ मेधातिथि के भाष्य के रूप में अनुकरणीय और प्रेरक लगता था जिसके अनुसार दया, क्षमा, करुणा आदि हिन्दू धर्म के सनातन मूल्य त्याज्य हैं अपितु अपना धर्म जबरन दूसरे पर न थोपना जैसी विशेषताएं भी छोड़ने लायक हैं। धर्म युद्ध और युद्ध के द्वारा धर्म प्रचार की धारणाएं भी हिन्दू धर्म के अब तक के स्वभाव से असंगत हैं।

सावरकर भारतीय संविधान के कटु आलोचक रहे। उन्होंने लिखा- भारत के नए संविधान के बारे में सबसे ज्यादा बुरी बात यह है कि इसमें कुछ भी भारतीय नहीं है। मनुस्मृति एक ऐसा ग्रंथ है जो वेदों के बाद हमारे हिन्दू राष्ट्र के लिए सर्वाधिक पूजनीय है। यह ग्रंथ प्राचीन काल से हमारी संस्कृति और परंपरा तथा आचार विचार का आधार रहा है। आज भी करोड़ों हिंदुओं द्वारा अपने जीवन और व्यवहार में जिन नियमों का पालन किया जाता है वे मनुस्मृति पर ही आधारित हैं। आज मनुस्मृति हिन्दू विधि है।( सावरकर समग्र,खंड 4, प्रभात, दिल्ली, पृष्ठ 416)

चाहे वह राष्ट्रवाद की अवधारणा हो अथवा हिन्दू मुस्लिम संबंधों को देखने का नजरिया हो या राज्य और धर्म के संबंध हों गांधी सावरकर से बहुत दूर खड़े नजर आते हैं। यदि वे धर्म और राजनीति के आधारभूत मूल्यों में समानता की बात करते हैं तब भी उनका धर्म मानव धर्म होता है जिसकी भूमिका लोगों को आपस में जोड़ने और हिंसा को समाप्त करने की होती है। यह सावरकर का धर्म नहीं होता जो विभेद उत्पन्न करता है और अंततः दो राष्ट्रों अथवा दो प्रजातियों को खूनी संघर्ष में धकेल देता है।

 

गांधी जी समावेशी राष्ट्रवाद की हिमायत करते हैं। वे हमारी बहुलताओं की स्वीकृति के पक्षधर हैं। उनका स्पष्ट मत है कि धर्म एक व्यक्तिगत विषय है और राज्य को धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप कदापि नहीं करना चाहिए। वे धर्म और राजनीति को पृथक रखने का प्रबल आग्रह करते हैं। गांधी जी राष्ट्र के निर्माण और उसके स्थायित्व के लिए धार्मिक सहिष्णुता को प्राथमिक आवश्यकता के रूप में प्रस्तुत करते हैं। वे बहुत शालीनता से हमें चेतावनी देते हैं कि सर्व धर्म समभाव की अवधारणा न केवल नैतिक रूप से वरेण्य है अपितु इस पर अमल करना हमारी विवशता भी है क्योंकि इसी प्रकार हम अपनी और अपने राष्ट्र की रक्षा तथा उन्नति कर सकते हैं। उनका स्पष्ट मत है कि धर्म हमारे देश की नागरिकता का आधार नहीं बन सकता।

गांधी जी की इतिहास दृष्टि में मध्य काल के इतिहास को हिन्दू मुस्लिम संघर्ष के काल के रूप में देखने की प्रवृत्ति बिल्कुल नहीं थी। वे यह मानते थे कि शासक किसी भी धर्म का हो, यदि वह अत्याचारी है तो उसका अहिंसक प्रतिकार किया जाना चाहिए। इतिहास का वस्तुनिष्ठ अध्ययन यह दर्शाता है कि चाहे राजा हिन्दू रहा हो या मुसलमान आम लोगों के जीवन में, किसानों, मजदूरों और स्त्रियों की स्थिति में कोई विशेष गुणात्मक परिवर्तन नहीं आया था। इन आम लोगों में हिन्दू भी सम्मिलित थे और मुसलमान भी। हिन्दू सैनिक मुसलमान राजाओं को ओर से युद्ध करते थे और मुसलमान सैनिक हिन्दू राजाओं की तरफ से लड़ा करते थे। गांधी जी की दृष्टि में साम्प्रदायिक एकता बनाए रखने का दायित्व बहुसंख्यक समुदाय पर अधिक है क्योंकि वह अधिक शक्तिशाली है, उसे अल्पसंख्यक समुदाय को विश्वास में लेना चाहिए। किंतु वे यह भी स्पष्ट करते हैं कि जिस स्थान पर जो समुदाय अधिक समर्थ और मजबूत है उसका दायित्व बनता है कि वह अपने सामर्थ्य और सक्षमता का उपयोग दूसरे समुदाय की बेहतरी के लिए करे। गांधी जी यह भी संकेत करते हैं कि बहुसंख्यक समुदाय यदि निरन्तर अत्याचार करता रहे तो अल्पसंख्यक हिंसा की ओर उन्मुख हो सकते हैं। सावरकर का दर्शन हिंसा और प्रतिशोध की भावना से ओतप्रोत है। इसे गांधीवाद का विलोम कहना ज्यादा उचित होगा। 

जारी

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(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। स्कूली जीवन से ही लेखन की ओर झुकाव रहा। समाज, राजनीति और साहित्य-संस्कृति इनके प्रिय विषय हैं। पत्र-पत्रिकाओं और डिजिटल मंच पर नियमित लेखन। रायगढ़ छत्तीसगढ़ में  निवास।)

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