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अमृत राय सिर्फ़ प्रेमचंद के सुपुत्र ही नहीं थे

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वीरेंद्र यादव, लखनऊ:

प्रेमचंद ने नब्बे वर्ष  पहले लिखा था; "हमें अख्तियार है, हम गऊ की पूजा करें, लेकिन हमें यह अख्तियार नहीं है कि हम दूसरों को गऊ-पूजा के लिए बाध्य कर सकें। हम ज्यादा से ज्यादा यही कर सकते हैं, कि गौमांस -भक्षियों की न्यायबुद्धि को स्पर्श करें। फिर मुसलमानों में अधिकतर गौमांस वही लोग खाते हैं, जो गरीब हैं, और गरीब अधिकतर वही लोग हैं, जो किसी ज़माने में हिंदुओं से तंग आकर मुसलमान हो गए थे. .. यदि हम चाहते हैं कि मुसलमान भी गौभक्त हों, तो उसका उपाय यही है कि हमारे और उनके बीच में घनिष्ठता हो, परस्पर ऐक्य हो। तभी वे हमारे धार्मिक मनोभावों का आदर करेंगे

प्रेमचंद ने उक्त बातें अपने एक लेख में 1931 में लिखी थीं। इससे दस साल पहले ही उन्हें संतान हुई थी, जिसका नाम अमृत रखा गया था। आज उन्हीं अमृत राय की जयंती है। लेकिन क्या उनका परिचय महज़ यही है कि उनके पिता प्रेमचंद थे। हरगिज़ नहीं। लेकिन विडम्बना यह है कि आज उनके जन्म शताब्दी वर्ष (3 सितम्बर 1921-14 अगस्त 1996) का अत्यंत ठंडेपन के साथ समापन हो रहा है। हिंदी समाज की अपने एक  महत्वपूर्ण लेखक के प्रति यह उदासीनता  एक गंभीर चिंता और विचार का विषय होना चाहिए। अमृत राय एक श्रेष्ठ जीवनीकार, संपादक, अनुवादक, उपन्यासकार, आलोचक, नाटककार  तथा विचारक थे। उनके द्वारा लिखित प्रेमचंद की जीवनी 'कलम का सिपाही' हिंदी का एक गौरव ग्रंथ है। 'अग्निदीक्षा' और 'आदि विद्रोही' सरीखे  उनके अनुवाद हिंदी पाठकों की जुबान पर हैं। भाषा के प्रश्न पर उन्होंने 'ए हाउस डिवाइडेड'  शीर्षक से अंग्रेजी में महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी थी।   प्रेमचंद के बाद 'हंस' का कुशल संपादन करते हुए वे अंग्रेज़ तथा भारत सरकार दोनों  के  कोप के शिकार हुए थे। आजाद भारत में राष्ट्रीय सुरक्षा कानून में उनकी गिरफ्तारी और जेल भी हुई थी। वे वामपंथी सांस्कृतिक आंदोलन की नेतृत्वकारी भूमिका में रहे थे। कम्युनिस्ट पार्टी और प्रगतिशील लेखक संघ से उनका गहरा जुड़ाव रहा था। वे बनारस में कम्युनिस्ट पार्टी के होलटाइमर और प्रगतिशील लेखक संघ के सचिव भी रहे थे।    1953    के  इलाहाबाद के लेखक सम्मेलन  के प्रमुख आयोजकों में भी वे शामिल थे। बाद के दौर में भी 1980 और 1982 के प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय सम्मेलनों का उन्होंने उद्घाटन किया था।
 
'साहित्य में संयुक्त मोर्चा' की  बहस उन्होंने  ही चलाई थी। सत्तर के दशक में 'सांप्रदायिकता का सवाल' विषय पर  1968 में ' मुक्तधारा' में  उस बहस का आरंभ और  समापन  अमृत राय  ने ही किया था।  जिसमें  डा. नामवर सिंह, हरिशंकर परसाई और गिरीश माथुर आदि ने  गर्मजोशी  के साथ  हिस्सा लिया  था। उर्दू के क्षेत्रीय भाषा  होने के  प्रश्न पर भी  उन्होंने  विचारोत्तेजक  बहसतलब  हस्तक्षेप  किया था। 'डा. जिवागो', 'लोलिता ' और  'नदी के द्वीप '  उपन्यासों   पर उनके द्वारा लिखे गए आलोचनात्मक लेख भी  लंबे समय तक चर्चा में रहे थे।  'नदी के द्वीप' के बारे यह लिखकर उन्होंने  साहित्यिक भूचाल ही ला दिया था कि "नदी के द्वीप एक चरम अहंकारी, व्यक्तिवादी आदमी की वासना की कहानी है, प्रेम हम उसे नहीं कह सकते। प्रेम की कहानी लिखने में कोई बुराई  नहीं है। लेकिन देखना होगा कि जो प्रेम चित्रित है वह जीवन को शक्ति और वेग और सौंदर्य देनेवाला प्रेम है या निरी वासना, ऐन्द्रिक भूख।"   अमृत राय का यह लेखन उनकी पुस्तकों 'साहित्य में संयुक्त मोर्चा', 'आधुनिक भावबोध की संज्ञा',और  'सहचिंतन' आदि में उपलब्ध है। उनकी कुल लगभग चालीस पुस्तकें हैं। इलाहाबाद से 'हंस' प्रकाशन का संचालन भी उन्होंने किया। पारिवारिक संयोग से वे प्रेमचंद के बेटे और सुभद्रा कुमारी चौहान के  दामाद थे। उनकी पत्नी सुधा चौहान भी 'मिला तेज से तेज' सरीखी जीवनी सहित एक समर्थ लेखिका थीं। सत्यजीत राय, सुभाष मुखोपाध्याय और हुसैन से उनकी गहरी मैत्री थी।  'सद्गति'  फिल्म के डायलॉग  अमृत राय ने ही लिखे थे।
अफ़सोस कि हिंदी के एक ऐसे  महत्वपूर्ण लेखक को शताब्दी वर्ष में भी लगभग  विस्मृत कर दिया गया। उम्मीद की जानी चाहिए कि अगले  एक वर्ष में उन  पर कुछ प्रकाशन, आयोजन अवश्य होगें। उनकी स्मृति में सादर नमन।

(लेखक वरिष्ठ लेखक और आलोचक हैं। कई किताबें प्रकाशित और चर्चित।)


नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।