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संवैधानिक मूल्यों के प्रति चंबल में जागरूकता की मशाल बनीं झारखंड की सुनीता

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शहरोज़ क़मर, रांची:

किसी के दर्द में जब आप पिघले नहीं तो इसका मतलब है कि आप अब संवेदनहीन हो चुके हैं। वहीं कई ऐसे लोग भी हैं, जो किसी को संकट से मुक्त कराने के लिए समय, जगह और स्थिति की परवाह नहीं करते। हालांकि इनकी संख्या अब नाममात्र भले रह गई है, लेकिन उनके काम के तेवर और भाव से आप अलक्षित नहीं रह सकते। सुनीता लकड़ा उनमें से ही एक हैं, झारखंड में जन सेवा करते-करते जब उन्हें बुंदेलखंड की अभाव से लरज़ती तड़प ने पुकारा तो बिना देर किये चंबल के बीहड़ों से घिरे गांव पहुंच गईं। उनके हौसले और परिश्रम के बल पर सामाजिक बदलाव की आज हम कहानी बताते हैं।

धरती आबा, गौतम बुद्ध और ईसा मसीह से ली प्रेरणा
रांची के ग्रामीण इलाके में पली-पढ़ी यह लड़की जब बचपन में किसी को मुसीबत में देखती, तो उसकी मदद करने पहुंच जाती। बुद्ध की तरह सोचने लगती कि आखिर लोग बदहाली और परेशानी में क्यों जीते हैं। उसे ईसा मसीह प्रेरणा देते- आगे बढ़ो और उनसे प्रेम करो। उनकी सेवा करो। वहीं धरती आबा बिरसा मुंडा से अनीति के विरुद्ध प्रतिकार करना सीखा। रांची जिले के रातू के आदिवासी बाल विकास विद्यालय से मैट्रिक, मारवाड़ी कॉलेज रांची से इकोनॉमिक्स में ग्रेजुएशन और रूरल डेवलप्‍मेंट में मास्टर्स करने के बाद उसने ठान लिया कि सिर्फ अपने लिए ही जिंदगी नहीं जीनी है, बल्कि दूसरे के लिए काम आना ज्यादा जरूरी है। 

 

 

लड़कियों में खेल के माध्‍यम से कराया आजादी का एहसास
क्रिया संस्थान के साथ मिलकर वह महिलाओं को उनके अधिकारों के लिए जागरूक करने लगी। यह 2007 की बात है। महिला-पुरुष में समानता को लेकर गांव-शहर भ्रमण किये। बैठकें कीं। सेमिनार किये। झारखंड के अलावा बिहार में भी लड़कियों के बीच साहस का संचार किया। इसके लिए खेल को माध्यम बनाया। वॉलीबॉल और फुटबाल की टीम गांव-गांव बनवाई। इससे लड़कियों में आजादी का एहसास हुआ।


 

महिला पंचायत प्रतिनिधियों को खुद निर्णय लेने में पारंगत किया
सुनीता बताती हैं कि 2010 में झारखंड में पहली बार 32 साल के बाद पंचायत चुनाव हुए थे। महिलाओं का आरक्षण 50 प्रतिशत था। जिसमें 53% महिलाएँ चुन कर आई थीं। लेकिन उनकी जगह उनके पुरुष साथी ही सारे निर्णय ले रहे थे। महिलाएं सिर्फ चेहरा थीं। उन महिलाओं में क्षमता का विकास करने के लिए गांव-गांव, पंचायत-पंचायत बैठकें शुरू कीं। उन्हें उनके अधिकार से रूबरू कराया। उनकी जिम्मेदारी के साथ खुद के अधिकार के लिए आगे आने के लिए प्रेरित किया। खासकर झारखंड के चतरा और हज़ारीबाग जिले में इसका सकारात्मक असर भी दिखा।

 

ट्रैफिकिंग के शिकार करीब सैकड़ों बच्‍चों को छुड़ाया
सुनीता कहती हैं, झारखंड से बहुत ज्यादा तादाद में पलायन होता है। पलायन के साथ ट्रैफिकिंग एक बहुत बड़ा मुद्दा रहा है। झारखण्ड से खास कर आदिवासी लड़कियों की ट्रैफिकिंग बहुत होती है। टीम के साथ 5 जिले के 100 गांव में काम किया। चतरा, हज़ारीबाग, कोडरमा, बोकारो और रामगढ़ के रहने वाले सैकड़ों बच्चों को अलग-अलग जगहों से मुक्तो कराया। इनमें लड़के और लड़की दोनों शामिल हैं।

 

 

सरना कोड के लिए पहली ऑनलाइन पीटीशन
आदिवासियों के लिए अलग सरना कोड लागू करने की मांग को लेकर आंदोलन में सक्रिय भागीदारी निभाई। इसके लिए पहली ऑनलाइन पीटीशन सबमीट किया है। जिसमें अभी तक करीब 6000 लोगों ने साइन किया है। सुनीता Change. org  की fellow change maker हैं। बताती हैं कि कोरोना काल में जब लॉक डाउन लगा था। लोगों के पास आने-जाने का साधन नहीं था। परेशान थे लोग। तब उनके लिए एक पीटीशन किया था। सरकार से मांग थी कि उनके रास्ते में वाहन और खाने की व्यवस्था की जाए।

 


 

बुंदेलखंड में महिलाओं में फैला रही जागरूकता 

सुनीता एक साल से बुंदेलखंड के इलाके में हैं। चंबल का वो इलाका जहां जातीय और सामंती दबंगई हिंसक रूप लेती रही है। लेकिन सुनीता बताती हैं कि अच्‍छे कामों का हर जगह समर्थन किया जाता है। जब भी वो किसी भी गांव जाती हैं, उनका स्वागत लोग करते हैं। वह 100 गांव में दलित, मुस्लिम और ओबीसी युवाओं के साथ संबैधानिक मूल्यों और अधिकार पर कार्य कर रही हैं। गांव-गांव संविधान यात्रा निकालती हैं। हर गांव में बैठक करती हैं।