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दर्द और बिछोह की आंच में पकी, हृदय की गहराइयों से उपजने वाली आवाज़

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अशोक पांडेय, दिल्‍ली:

आदमी बनने की तमीज़ सीखने के बाद आदमी ने कैसे-कैसे वाद्य बनाए! उमड़ते मेघों के मुखर गुस्से को मृदंग की चर्म-पट्टियों में बांधा, बारिश के गिरने को सितार के तार दिए, देवताओं को दुःख हुआ तो उन्हें वायोलिन थमाया। पानी के बहने को बांसुरी दी। मानव स्वर के सबसे निकट पहुँचने वाले कितने ही वाद्य बनाए गए। उसके सबसे नज़दीक पहुंची सागर वीणा की ईजाद को पचास साल भी नहीं हुए हैं। दुनिया में हज़ारों तरह के वाद्य हैं। उन्हें बनाने-बजाने के हज़ारों तरीक़े हैं। किसी ऐसे वाद्य का निर्माण होना बाकी है, जिससे निकलने वाला सुर आपके कंधे पर हाथ रख कर कहे – “घबराओ नहीं मैं हूं!” यह काम तो किसी प्रिय मनुष्य की वाणी ही कर सकती है। आदमी की आवाज़ का कोई विकल्प नहीं। गीत उस आवाज़ का सबसे बड़ा हासिल है। बड़े गवैये का एक सुर संसार भर की भावनाओं को ज़बान दे सकता है। चरवाहों-मछुआरों के गीत प्रकृति को ऋचाओं में बदल देते हैं जिनकी एक पंक्ति के भीतर जापानी उपन्यासों तक में आने वाली जटिल और विशाल दुनिया छिपाई जा सकती है।

 

 

ध्वनि रेकॉर्डिंग का इतिहास डेढ़ सौ साल का भी नहीं है। इसलिए हमें कभी मालूम नहीं पड़ सकेगा तानसेन और बैजू बावरा का वह मुकाबला कैसा रहा होगा जिसमें ये गवैये अपने गाने से दिया जला देते थे, संगमरमर को पिघला देते थे। हम भाग्यशाली हैं हमारे पास पिछले सौ-सवा सौ वर्षों के गायकों की आवाजें महफूज़ हैं। मलिका जान से लेकर नुसरत फ़तेह अली खान, मेंहदी हसन से लेकर शमशाद बेगम और तलत महमूद से लेकर कौशिकी चक्रबर्ती तक एक से एक आवाज़ों का अथाह समुन्दर है जिसमें से अपनी पसंद के हिस्से में जब चाहें तब डूबा जा सकता है। इतनी लम्बी भूमिका इसलिए बांधी कि येसुदास की आवाज़ के बारे में लिखना था। वह आवाज़ एक पूरा घराना है - भूत-भविष्य, इतिहास-भूगोल से स्वतंत्र एक समूचा सम्पूर्ण घराना जिसके भीतर प्रवेश करते ही येसुदास आपसे कहते हैं – “डरो मत. बस मेरी उंगली थाम लो।”

 

वे आपको आपके आसपास की परिचित दुनिया दिखाने ले चलते हैं। उनके साथ आपको गोधूलि की ऊष्मा नए सिरे से महसूस होती है जिसकी टूटती-जुड़ती रोशनी में जंगली बिल्लियां और सारस भोजन की टोह में निकले हैं। वे आपको आसमान के ऊपर पसरे-सोये पहाड़ों पर बने सीढ़ीदार खेतों से बना हरा-भूरा पियानो दिखाते हैं जिनकी जुती हुई मिट्टी की गंध सूंघता भालू का बच्चा शहद के पहले पहले सबक सीख रहा है। खेतों से लगा हुआ गाँव है स्लेट से ढंकी जिसके मकानों की छतों पर सुखाने को रखे गई लाल मिर्चें और मक्का घर कोठार के भीतर सम्हाले जा रहे हैं। औरतों-बच्चों की आवाज़ों से आगे बगीचा है जहाँ आलूबुखारे- नाशपातियां पक रहे हैं. तब गाँव की सरहद शुरू होती है. वहां पुरानी, काईदार चट्टानें हैं जिनके अँधेरे हरे से पानी टपकता है - टप, टप।

गाँव से बाहर आने पर उस शीतल जलधारा को पार करने के लिए आपको पतलून के पांयचे ऊपर करने होंगे जिसके शिशु पानी का सफ़र अपने से सौ गुना बड़ी नदियों से होता हुआ उस समुद्र तक पहुंचता है जिसकी सतह पर एक क्षितिज से दूसरे क्षितिज तक विराट शान्ति फैली हुई है. पानी पर बिखरा डूबते सूरज का लाल आपसे कहता है – “संकेत मिलन का भूल न जाना!” दर्द और बिछोह की आंच में पकी, हृदय की गहराइयों से उपजने वाली येसुदास की अद्वितीय आवाज़ कभी किसी धुन में नहीं ढली। तमाम संगीतकारों ने उसे आधार बनाकर धुनें रचीं। उनका गाया कोई भी गीत सुनिए; हो सकता है आपने उसे सैकड़ों बार सुना हो पर आप को लगेगा उस धुन को संसार में पहली बार गाया जा रहा है।

 

Ravindra Jain, Bollywood composer, dies at 71 | Bollywood – Gulf News

 

मुठ्ठी भर गीतों की सूरत में उनके जादू का बहुत थोड़ा सा हिस्सा हिन्दी फिल्मों के हिस्से आया। उनकी पूरी रेंज देखनी हो तो खोज कर उनके मलयालम और तमिल फ़िल्मी गीतों को सुनिए! मूलतः वे एक सिद्धहस्त शास्त्रीय हैं और कर्नाटक संगीत के पुरोधाओं में गिने जाते हैं। दृष्टिहीन संगीतकार रवीन्द्र जैन ने उनसे ‘चितचोर’ के गाने गवाए। पहली ही रेकॉर्डिंग के बाद रवीन्द्र जैन उनकी आवाज़ के सम्मोहन से बंध गए। वे कहते थे कि अगर किसी चमत्कार के चलते उन्हें देखने की शक्ति फिर से हासिल हो जाय तो वे अपने सामने सबसे पहले येसुदास को देखना चाहेंगे – “ऐसी आवाज़ केवल ईश्वर के पास होती है. मैं सबसे पहले येसुदास को ही देखना चाहूंगा।” ईसाई परिवार में जन्मे येसुदास ने अपने संगीत का बड़ा हिस्सा गुरुवायुरप्पन देवता की आराधना को समर्पित किया! वे जीवन में एक बार उनके मंदिर में गाना चाहते थे। धर्म के कट्टर पुजारियों ने ईश्वर को ईश्वर के मंदिर में प्रवेश तक नहीं करने दिया। 

 

(उत्‍तरांचल के रहने वाले लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।